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________________ इसने अपने इस शरीर पर्याय को ही आपा मान लिया है। जब मूल में ही भूल हो गयी तो अब जितना भी यह अपने गुजारे का विस्तार बनायेगा वह सब उल्टा ही विस्तार बनेगा। भूल पर भूल देह को ही जीव आत्मा समझते है, उनके उपयोग का जितना विस्तार बढ़ेगा वह सब कुमार्ग का विस्तार बढेगा। घर मे रसोई में चावल शाक आदि बनाने की जो भगोनी है, पतेली है वे किसी कोने मे दस पाँच इकट्ठी लगानी है तो चूँकि जगह कम घिरे इसलिए एक के ऊपर एक क्रम से लगाते है । तो नीचे की पतेली यदि औंधी कर दी है तो ऊपर जितनी भी पतेली रखी जावेंगी वे सब औंधी ही रखी जा सकेगी, सीधी नही, और नीचे की पतेली यदि सीधी रखी है तो ऊपर की सभी पतेली सीधी ही रखी जा सकेगी, औधी नही । यो ही प्रारम्भ में उपयोग यदि सही है तो विकार विस्तार भी सही रहेगा और मेल मे ही यदि भूल कर दी तो अब जितने भी विकार होगे, श्रम होगे वे सब उल्टे ही उल्टे हो जायेगे। यह मूढ पर्याय व्यामोह के वश हुआ इन समस्त पदार्थो को अपना मानता है। ये सब विडम्बनाएँ इस निज आत्मास्वरूप को न जानने के कारण I दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसंति नगे नगे । स्वस्वकार्य वशाद्यांति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे | 19 ।। क्षण संयोग का पक्षियो के दृष्टान्तपूर्वक समर्थन - जैसे पक्षीगण नाना देशो से उड़ करके शाम के समय पेड़ पर बैठ जाते है, रात्रिभर वहाँ बसते है, फिर वे अपने-अपने कार्य के वश से अपने कार्य के लिए प्रभात होते ही चले जाते है इस ही प्रकार ये संसार के प्राणी, हम और आप अपने-अपने कर्मोदय के वश से नाना गतियो से आकर एक स्थान पर, एक स्थान पर, एक घर में इकट्ठे हुए है, कुछ समय को इकट्ठे होकर रहते है, पश्चात् जैसी करनी है, जैसा उदय है उसके अनुसार भिन्न भिन्न गतियो में चले जाते है। क्षण संयोग पर यात्रियो पर यात्रियो का दृष्टान्त ऐसी स्थिति है इस संसार की जैसे यात्रीगण किसी चौराहे पर को किसी दिशा से आकर कोई किसी दिशा से आकर मेले हो जायें तो वे कितने समय को मेले रहते है। बस थोडी कुशल-क्षेम पूछी, राम-राम किया, फिर तुरन्त ही अपना रास्ता नाप लेते है। ऐसे ही भिन्न भिन्न गतियो से हम और आप आये है, एक महल में जुड़ गये है, कोई कही से आया कोई कही से, कुछ समय को इकट्ठे है जितने समय का संयोग है उतना समय भी क्या समय है? इस अतन्तकाल के सामने इतना समय न कुछ समय है। ऐसे कुछ समय रहकर फिर बिछुड जाना है फिर किसी से राग करने में क्या हित है? - क्षण भंगुर जीवन में वास्तविक कर्तव्य भैया ! थोड़े अपने जीवन में भी देख लो । जो समय अब तक गुजर गया है सुख में, मौज में वह समय आज भी ऐसा लग रहा कि कैसे गुजर गया? सारा समय यों निकल गया कि कुछ पता ही नही पड़ा। तो रही सही जिन्दगी यों ही निकल जायगी कि कुछ पता ही न रहेगा। ऐसी परिस्थिति में हम औश्र आपका कर्तव्य क्या है? क्या धन के मोह मे; परिवार के मोह में पड़े रहना ही अपने मोह रखत है कि यह बहुत जुड़ जाय तो हम दुनिया के बीच में कुछ बड़े कहलाएं। अरे पर 31
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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