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________________ वस्तु के संचय कोई बड़ा नहीं कहलाता है। मान लो क इस अज्ञानमय दुनिया ने थोड़ा बड़ा कह दिया, पर करनी है खोटी कर्म बंध होता है खोटा, तो मरने के बाद एकदम कीड़ा हो गया, पेड़ बन गया तो अब कहां बड़पप्न रहा अथवा बड़प्पन तो इस जीवन में भी नही है । काहे के लिए धन का मोह करना, उससे शान्ति और संतोष नही मिलता और किसलिए परिजन से मोह करना? कौन सा पुरूष अथवा स्त्री कुटुम्बी हमारा सहायक हो सकता है? सबका अपना अपना भाग्य है, सबकी अपनी अपनी करनी है, जुदी जुदी कषाये है, सब अपने ही सुख तन्मय रहते है। परिजन में भी क्या मोह करना? ठीक स्वरूप का भान करलें यही वास्तविक कर्तव्य है । संसार में संयोग वियोग की रीति गृहस्थी में जो कर्तव्य है ऐसे गृहस्थी के कार्य करे, पर ज्ञानप्रकाश तो यथार्थ होना चाहिए । यह दुनिया ऐसी आनी - जानी की चीज है । जैसा एक अंलकार में कथन है जब पत्ता पेड़ से टूटता है तो उस समय पत्ता पेड़ से कहता है पत्ता पूछे वृक्ष से कहो वृक्ष बनराय । अबके बिछुड़े कब मिले दूर पड़ेगे जाये ।। पत्ता पूछता है कि है वृक्षराज ! अब हम आपसे बिछुड रहे है अब कब मिलेगे? तब वृक्ष यो बोलियो सुन पत्ता एक बात । या घर याही रीति है इक आवत इक जात ।। पेड़ कहता है कि ऐ पत्ते! इस संसार की यही रीति है कि एक आता है और एक जाता है। तुम गिर रहे हो तो नये पत्ते आ जायेगें। ऐसा ही यहाँ का संयोग है, कोई आता है कोई बिछुड़ता है। जो आता है वह अवश्य बिछुड़ता है। - तृष्णा का गोरखधंधा भैया ! बडा गोरखधंधा है यहाँ का रहना । मन नही मानता है, इस दुनिया मे अपनी पोजीशन बढ़ाना, और बाह्रा में दृष्टि देना, इससे तो आत्मा का सारा बिगाड़ हो रहा है, न धर्म रहे, न संतोष से रहे, न सुख रहे। तृष्णा के वश होकर जो सम्पदा पास में है उसका भी सुख नही लूट सकते। जो कुछ उसमें अच्छी प्रकार से तो गुजारा चला जा रहा है, सब ठीक है, पर अपने चित्त मे यदि तृष्ण हो जाए तो वर्तमान में जो कुछ है उसका भी सुख नही मिल पाता। इस संसार के समागम में कहीं भी सार नही है। सचेतन संग का कड़ा उत्तर - और भी देखो कि अचेतन पदार्थ कितने ही सुहावने हो, किन्तु अचेतन पदार्थ कुछ उसे मोह पैदा कराने की चेष्टा नही करते है, क्योकि वे न बोलना जानते है, न उनमें कोई ऐसा कार्य होता है जो उसके मोह की वृद्धि के कारण बने । ये चेतन पदार्थ मित्र, स्त्री आदि ऐसी चेष्टा दिखाते है, ऐसा स्नेह जताते है कि कोई विरक्त भी हो रहा हो तो भी आत्मकार्य से विमुख होकर उनके स्नेह में आ जाता है। तब जानो कि ये चेतन परिग्रह एक विकट परिग्रह है, ये सब जीव नाना दिशावो से आये है, नाना गतियों से चले जायेगे। इन पाये हुए समागमों में हित का विश्वास नही करना है । मेरा हित हो सकता है तो यथार्थ ज्ञान से ही हो सकता है । सम्यग्ज्ञान के बिना कितने भी यत्न कर लो संतोष व शान्ति प्रकट न हो सकेगीं। यहाँ रहकर जो इष्ट पदार्थ मिले है उनमें हर्ष मत मानो, और कभी अनिष्ट पदार्थ मिलते है तो उनमें द्वेष मत मानो । - 32
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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