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प्रकार यह अज्ञानी जीव एक तो स्वयं ही स्वस्थ नही है, उसे आनन्द का साधन निज तत्व मिल नही पाया है जिससे वह निज में स्थित हो सके। मिथ्यादृष्टि जीव को इस निज परम तत्व का परिचय नही है सो यह स्वयं ही अज्ञानी होने से अस्वस्थ है और फिर धन वैभव का योग पाये, उसकी और दृष्टि लगे तो उस दृष्टि के कारण भी यह और अस्वस्थ बढ़ गया। जो अस्वस्थ है वह शान्त नही रह सकता। उसे आकुलता हे तब तो बाहा की और उसने बुद्वि भ्रमाई है। और बुद्वि भ्रमाई है तो इस स्थिति का रूपक आकुलता रूप ही होगा, अनाकुलता नही हो सकती है।
धन प्रसंग की कठिनाइयाँ - जिस धन वैभव के कारण यह मोही जीव अपने को स्वस्थ मानता है वह वैभव कैसा है? प्रथम तो वह बड़ी कठिनाई से उत्पन्न होता है, इस धन के चाहने वाले सभी है ना, ग्राहक है वे भी चाहते हे कि मेरे पास धन आ जाय और दूकानदार चाहते है कि ग्राहको से निकलकर मेरे पास धन अधिक आ जाय, तो अब दुकानदार और ग्राहक दोनो में जब होड़ मच जाती है, सभी अपने को अधिक चाहते है तो ऐसी स्थिति में फिर पैसे को उपार्जन कर लेना कितना कठिन हो जाता है अथवा अन्य प्रकार की आजीविका से सभी धन कमाते है उनको कितना श्रम लगाना पड़ता है, कितना उपयोग और समय देना पड़ता है तब धन का संचय होता है। यह धन बड़ी कठिनता से उपार्जित किया जाता है।
धन सुरक्षा की कठिनाई - धन का उपार्जन भी हो जाए तो उसका संरक्षण करना बड़ा कठिन हो जाता है। आज के समय में तो यह कष्ट और भी बढ़ा हुआ है। धन का उपार्जन रखें तो शंका, बैंक में रखे तो शेंका, कहाँ रखे, रख भी लें तो उसका उपयोग करना भी एक किसी कानून में एलाऊ नही हो रहा है। तब जैसे उसकी रक्षा की जाय? तो रक्षा करना भी कठिन हो रहा है।
__ धन की अन्तगति – धन कमा भी ले, और उसकी रक्षा कर भी ले तो आखिर धन छूट ही तो जायगा। जिनके लिए धन छूट जायगा वे लोग तुम्हारी मदद कर देंगे क्या? मिथ्यात्व में ही तो यह एक उपाय बन गया है कि मरे हुए आदमी की श्राद्ध की जाती है। किसी पांडे को चारपाई चढ़ा दो तो वह उसके बाप दादा को मिल जायगी, पांडे को गाय भैंस दे दो तो गाय भैस का दूघ उसके पास पहुंच जायगा। कैसी मान्ताएँ बसा दी गई है। इससे जिन्दा रहने वालों का मिथ्यात्वा भी बढ़ता जा रहा है। हम मरेंगे तो हमारे लड़के श्राव करेगें, धर्मात्मा बने है, ठेकदार बने है उनके भी इसमें स्वार्थ है। ऐसी करने पुत्री को भी स्वार्थ है और भ्रम में पड़ा हुआ यह बड़ा बूढ़ा आदमी भी स्वार्थ से ही इस परम्परा को बनाए है।
मिथ्यात्वग्रास - यह समस्त धन विनाशीक है, छूट जायगा। कुछ न रेहगा साथ, पर संचय करने में जिना उपायोग फसाया, जितना समय लगाया, कितना अमूल्य समय था यह मनुष्य जीवन का। इन जीवन के क्षणों में से स्वाध्याय के लिए, धर्मचर्चा के लिए, ज्ञानार्जन के लिए समय कुछ भी नही निकाल सकते और जो व्यर्थ की बातें है, उनके लिए रात दिन जुटे रहते है। यह सब क्या है? मिथ्यात्व ग्रह से ही तो डसे हुए है। ऐसा यह कठिन धन
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