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________________ वैभव है जिसके कारण यह अपने को स्वस्थ श्रेष्ठ और उत्तम मानता है। वास्तविक बात यह कि धन वैभव न सुख का उत्पन्न करने वाला है और दुःख का उत्पन्न करने वाला है। ये सब सुख दुःख कल्पनावो से उत्पन्न होते है। जिस प्रकार की कल्पनाएँ यह जीव करता है उस ही प्रकार की परिणति इस जीव की हो जाती है। वास्तव में सुखी तो वास्तविक त्यागी संत जन ही है, ऐसा त्याग उनके ही प्रकट होता है जा अपने स्वरूप को त्यागमय पहिचान रहे है। यह मेरा, मेरे सत्व के कारण मेरे ही रूप, यह मैं स्वरूप, सबसे न्यारा हूं, केवल चिन्मात्र हूं, प्रकाशमय हूं| इसका जीवन उस चित्प्रकाश की वृत्ति से होता है। इस जीवन को ने पहिचान सके तो ऐसी विडम्बना बनती है कि अन्य पदार्थ के संयोग से भोजन पान से अपना जीवन माना जा रहा है। आत्मजीवन की स्वतंत्रता - इस आत्मा का जीवन आत्मा के गुणों की वर्तना से है। है यह आकाशवत् अमूर्त निर्लेप पदार्थ, उसकी वृत्तियाँ जो उत्पन्न होती है उनसे ही यह जीता रहता है। इसका जीवन अपने आपके परिणमन से है। ज्ञानी पुरूष कही चितातुर नही हो सकता। अज्ञानी जन बड़े-बड़े ऐश्वर्य सम्पदा में भी पड़े हुए हो तो भी चिंतातुर रहते है। ज्ञानी जानता है कि यह मे तो पूरा केवल चिन्मात्र हूँ। इसका न ही कही कुछ बिगाड़ हो सकता है और न किसी दूसरे के द्वारा इसमे सुधार हो सकता है। यह तो जो है सा है, अपने आपके परिणमन से ही इसका सुधार बिगाड़ है। ज्ञानी की दृष्टि धन वैभव आदि में सुख दुःख मानने की नही हाती है। वे जानते है कि केवल उनकी तृष्णा ही दुःख को उत्पन्न करने वाली रहै। यह चिन्मात्र मूर्ति आत्म स्वरसतः सुख को उत्पन्न काने वाला है। स्वयं का स्वंय में कार्य और फल - भैया! जो पर पदार्थ है वे अपना ही कुछ करेगें या मेरा कुछ कर देंगे। वस्तुस्वरूप पर दृष्टि दो, जितने भी अचेतन पदार्थ है वे निरन्तर रूप, रस, गधं, स्पर्श गुण में परिणमते रहते है, यही उनका काम है और यही उनका भोग है। इससे बाहर उनकी कुछ कला नही है, फिर उनसे इस आत्मा में कैसे सुख और कैसे दुःख आ सकेगा? ये वैभव सुख दुःख के जनक नही है, कल्पना ही सुख दुःख की जनक है न्यायग्रन्थों में उदाहरण देते हुए एक जगह लिखा है कि कोई पुरूष कारागार में पड़ा हुआ है जहाँ इतना गहरा अंधकार है कि सूई का भी प्रवेश नही हो सकता याने सूई के द्वारा भी भेदा नही जा सकता, ऐसे गहन अंधकार में पड़ा हुआ कामी पुरूष जिसे अपने हाथ की अंगुली भी नही नजर आती, किन्तु उसे अपनी स्त्री का रूप मुखाकार बिल्कुल स्पष्ट सामने झलकाता है। कहाँ है कौन? पर उसके चित्त में ऐसी ही वासना बनी हुई है कि कल्पनावश वह कुछ चिन्तन करता है अथवा विचार माफिक सुख को भोगता है अथवा कुछ कल्पना करके सुख दुःख पाता है। सुख दुःख का कल्पना पर अवलम्बन - कोई पुरूष बड़े आराम से कमरे में बैठा हुआ है, सुहवाने कोमल गद्दे तकिये पर पड़ा हुआ है, पंखा भी चल रहा है और वातनुकूलित साधन भी मिल गये है, इतने पर भी वह चिन्तामग्न है। पोजीशन, धन, कितनी ही प्रकार की बातें उसके उपयोग में पड़ी है। तृष्णा का तो कही अंत ही नही है। तृष्णा मे पीड़ित
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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