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________________ हुआ वह मन की छलांगे मार रहा है और उनका प्रतिकूल परिणमन देखकर व्यग्र हो रहा है। तो किसे सुख कहते और किसे दुःख कहते? ये सब कल्पना पर अवलम्बित है। यह धन तो दुःख का पात्र है जिसके उपार्जन में दुःख है? जिसकी रक्षा में दुःख है, जिसके खर्च करने में दुःख है, सो यह धन तो इस जीव को कष्ट पहुँचाने के ही काम मे आ रहा है। बाहा पदार्थ संग में है तो उनसे कुछ न कुछ ऐसी ही कल्पना जगेंगी जो असाता उत्पन्न करेगी। कभी इच्छानुसार धन का संचय भी हो जाय तो तृष्णा और बढ़ जाती है। मायामय रोग, वेदना व इलाज - अहो, भैया, यहाँ सभी इस संसार के जीव इस रोग के रोगी है। जब जब कुछ न था तब ऐसा सोचते थे कि इतना हो जाये फिर तो जीवन चैन से निकलेगा, फिर कुछ नही करना है, जब उतना हो गया जितना सोचते थे तो वे सब बाते विस्मृत हो गयी। अब आगे की पुरिया पूरने में लग जाते है इतना और कैसे हो? इतने स तो गुजारा ही नही चलता हैं जब इतना न था, इसका चौथाई भी न था तब कैसे गाड़ी चलती थी, पर चैन कहाँ है? लगे रहेगें, अंत में छोड़ जायेगे। इस समय जो मिला है वह धर्म सेवन में लगाया जाता तो अच्छा था। स्वप्न में मिले हुए राज्य की क्या कीमत? स्वप्न में मिले हुए समागम पोजीशन बढ़ रही हो तो उसकी क्या कीमत है? ऐसे ही इस अविवेक में इस मोह नींद मे जो कुछ इन चर्म चक्षुवों से दिख रहा है वह सब केवल स्वप्नवत् है, कल्पनाजन्य है इसी प्रकार यहाँ आँखो से जगती हुई हालत में भी जो कुछ निरखा जा रहा है वह सब मायास्वरूप है। बिना सिर पैर की विडम्बना – तृष्णा का आक्रमण बहुत बुरा आक्रमण है। ये मोही जन जिनमें आशा लगाये हुए है, इस संसार में जो अज्ञानियों का समूह पड़ा हुआ है, देहातों मे, नगरो मे, शहरो में विषय लिप्सा पड़े हुए अज्ञानी जनों का जो समूह पड़ा हुआ हे उनमें नाम चाहा जा रहा है। किन में नाम चाहा जा रहा है पहिले तो वहाँ ही पोल निरखो और फिर जो चाहा जा रहा है उसकी भी असारता देखों। नाम का क्या अर्थ? स्वर 16 है, व्यज्जन 33 है, अक्षरो को कही का कही रख दिया गया और उनको पढ़ लिया गया, सुन लिया गया तो इसमें तुम्हारा स्वरूप कहाँ आया? शब्द है, जिसका जो भी नाम है उस नाम के शब्दो को थोड़ा उलट करके कही का कही रख दिया, फिर तो उस पर इस तृष्णावी पुरूष का कुछ भी आकर्षण नही है। जो कल्पना में, व्यवहार में मान लिया गया है कि यह मै हूं उन अक्षरों से कितनी प्रीति है? कुछ नाम भी कर जायेगे और कुछ अक्षर भी कही लिख जायेगें तो उनसे इस मर जाने वाले का क्या सम्बंध है। और जीवित अवस्था में भी उस नाम से क्या सम्बंध है ? संसार अनादि निधन है। इस मनुष्य भव की प्राप्ति से पहिले भी हम कुछ थे अब उसका पता नही है। हम क्या थे, कहाँ थे, कैसे थे उसका अब कुछ आभास नही है। यो ही कुछ समय बाद इस भव से चले जाने पर यहाँ का भी कुछ आभास न रहेगा। फिर किसलिए यह चौबीस घंटे का समय व्यर्थ की कल्पनावों में ही गँवाया जा रहा है। स्वस्थता और अस्वस्थता - ये अज्ञानी जीव धन वैभव से अपने को स्वस्थ मानते है वे ऐसे बावले है कि जैसे कोई ज्वर वाला घी पीकर अपने को स्वस्थ अनुभव करे, वह तो
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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