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________________ विडम्बना की निशानी है। इस जीव की विपदा का कोई रूपक भी है क्या, कि इसका नाम विपदा है। अरे कल्पना में यह जीव अत्यन्त व्याकुल है। कुछ लोग ऐसे भी देखे जाते है कि जिनका मात्र एक पुत्र है और आगे किसी पुत्र की उम्मीद नही है, स्त्री गुजर गयी है उसका वह इकलौता बच्चा मर जाय तो भी कुछ बिरले लोग ऐसे देखने और सुनने मे आए है कि उनको तब भी कुछ चिन्ता नही होती। वे सब जानते है कि यह सब मायारूप है, इसमें मेरा तो कुछ भी न था। अज्ञानी जीव कल्पना करके किसी भी बात में विपदा समझ बैठते है और वे दुःखी होते है किन्तु ज्ञानी संत विवेकबल से स्वस्थ बने रहते है। विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते। दहामानमृगाकीर्णवनान्तरतरूस्थवत् ।।14।। आत्मविपत्ति के अदर्शन का कारण - पूर्व श्लोक में यह बताया गया था कि सम्पदा का समागम भी मनुष्य को महाकष्ट उत्पन्न करता है, ऐसी बात सुनकर यह जिज्ञासा होनी प्राकृतिक है कि सम्पदा का समागम आपत्ति का ही करने वाला है तो फिर लोग इसे छोड़ क्यो नही देते है ? क्यो रात दिन सम्पदा के समागम के चक्कर में ही यत्रं तत्र घूमा करते है ? इसकी जिज्ञासा का समाधान इस श्लोक में है। यह मूर्ख पुरूष दूसरो की विपत्ति को तो देख लेता है, जान लेता है कि यह विपदा है, यह मनुष्य व्यर्थ ही झंझट में पड़ा है, किन्तु अपने आप पर भी वही विपदा है वह विपदा नही मालूम होती है क्याकि इस प्रकार का राग है मोह है कि अपने आपको विषयों के साधन रूचिकर और इष्ट मालूम होते है, दूसरे के प्रति यह भाव जल्दी पहुंच जाता है कि लोग क्यों व्यर्थ में कष्ट भोग रहे है ? क्यों विपदा में है? आत्मविपत्ति के एक अदर्शक का दृष्टांत - अपनी भूल समझ में न आये, इसके लिए यह दृष्टान्त दिया गया है कि कोई वन जल रहा है जिसमें बहुत मृग रहते है, उस जलते हुए वन के बीच में कोई पुरूष फंस गया तो वह झट किसी पेड़ के ऊपर चढ़ जाता है पर चढ़ा हुआ वह पुरूष एक और दृष्टि पसारकर देख रहा है कि वह देखो हिरण मर गया, वह देखो खरगोश तड़फकर जल रहा है, चारो ओर जानवरो की विपदा को देख रहा है पर उस मूढ़ पुरूष के ख्याल में यह नही है कि जो दशा इन जानवरो की हो रही है, कुछ ही समय बाद यही दशा हमारी होने वाली है, यह चारो तरफ की लगी हुई आग हमें भी भस्म कर देगी और मेरा भी कुछ पता न रहेगा। वह पुरूष वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ दूसरो की विपदा को तो देख रहा है पर अपनी विपदा को नही नजर में ला पाता है। उसे तो यह ध्यान में है कि मै ऐसे ऊँचे वृक्ष पर बैठा हूँ, यह आग नीचे लगी है, बाहर लगी है, यह अग्नि मेरा क्या बिगाड़ कर सकती है? उसे यह पता नहीं होता कि जिस प्रकार ये जंगल के जीव मेरे देखते हुए जल रहे है इसी प्रकार थोड़ी ही देर में मै भी भस्म हो जाऊगाँ। आत्मविपत्ति के अदर्शक की परिस्थिति - दहामान वन में वृक्ष पर चढ़े हुए जन की भांति यह अज्ञानी पुरूष धन वैभव से अन्य मनुष्यो पर आयी हुई विपदा को तो स्मरण कर
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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