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जो भी विपदा मानी जाती है अनुभवी जाती है उसका प्रभाव तो जीव में ही होता है। फिर विपदा बाहर कहाँ रही? विपदा तो स्वरूप विरूद्व कल्पना बनाना मात्र है। जो जैसा नही है, उसे वैसा समझना इसी में संकट का अनुभव है। अंतः संसार के संकटो से मुक्त होने के लिये वस्तुस्वरूप का यथार्थ अवगम करना ही अमोघ उपाय है। इस ज्ञानार्जन के उपाय से समस्त संकटो को मेट ले।
दुरघुनासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना।
स्वरथं मन्यः जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषाः ।।13।। मोहियों की एक जिज्ञासा - इससे पहिले श्लोक में यह कहा गया था कि इस घटी यंत्र की तरह परिवर्तनशील संसार में ये विपत्तियाँ घटी की तरह रीति भरी रहती है, अथवा यों कहों कि एक घटी तो रीत नही पाती है, दूसरी घटी रीतने लगती है। यों एक विपदा का तो अंत हो नही पाता कि दूसरी विपदा सामने आ जाती है, ऐसा सबको अनुभव भी होगा। जब जन समागम में है और परपदार्थो का कुछ आश्रय भी लिया जा रहा है तो ऐसी स्थिति में यह बहुत कुछ अनुभव किया जा रहा होगा कि एक विपदा तो खत्म नही हुई कि लो अब यह दूसरी विपदा आ गई। किसी भी किस्म की विपदा हो। सब अपने आप में अर्थ लगा सकते है। इस प्रसंग को सुनकर यह शंका हो सकती है कि जो निर्धन होंगे उनके ही विपदा आया करती है। एक विपदा पूरी नही हुई कि दूसरी विपदा आ गयी। इसमें तो निर्धनता ही एक कारण है। इष्ट समागम जुटा न सके तो वहाँ विपदा पर विपदा आती है, पर श्रीमतों को क्या क्या विपदा होगी? ऐसी कोई आशंका करे तो मानो उसके उत्तर में यह श्लोक कहा जा रहा है।
जीता जागता भ्रम – ये धन आदि के वैभव कठनाई से उपार्जन किए जाने योग्य है और प्राणो की तरह इनकी रक्षा करे तो इनकी रक्षा होती है, तिस पर भी ये सब नश्वर है, किसी दिन अवश्य ही नष्ट होंग, बेकार होग। ऐसे धन वैभव से यदि कोई पुरूष अपने को स्वस्थ मानता है तो वह ऐसा बावला है जैसे कि कोई ज्वर वाला पुरूष घी पीकर अपने को स्वस्थ माने। ज्वर का और घी का परस्पर विरोध है। ज्वर वाला धी पीकर ज्वर में फंसता ही जायगा, तो कोई ज्वर वाला रोगी घी पीकर अपने को स्वस्थ माने तो वह उसका बावलापन है, उसका तो थोड़े ही समय में प्राणांत हो जायगा। ऐसे ही धन वैभव के संग के कारण अपने को कोई स्वस्थ माने तो यह अत्यन्त विपरीत बात है।
जीव अस्वस्थता – भैया! पहिले तो स्वस्थ शब्द का ही अर्थ लगावो। स्वस्थ का अर्थ है स्व में स्थित होना। जो धन वैभव से अपने को सुरक्षित मानता है उसकी दृष्टि निज पर है या वरपर है, स्वपर है या अस्वपर है उसकी दृष्टि बाहृा में है। अस्व कहो, पर कहो, बाहा कहो, एक ही अर्थ है। जो स्व न हो सो अस्व है। सो वह जीव अस्वस्थ है या स्वस्थ है जिसकी दृष्टि वैभव में फंसी है वह स्व में स्थित है या पर में स्थित है? वह तो अस्वस्थ है। हो तो कोई अस्वस्थ और माने अपने का स्वस्थ तो यह उन्मत चेष्टा है। ज्वरवान पुरूष न अभी स्वस्थ है और न घृत खाने से पीने से स्वस्थ होगा, उल्टा दुःखी ही होगा, इसी