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मै मरने वाला हूं। अरे यह शरीर तो इसीलिए उत्पन्न हुआ है। यह शरीर सदा नही रह सकता।
मोहियो की घुटना टेक हैरानी - दो बातो पर इस मनुष्य का वश नही चल रहा है - एक तो मृत्युदर दूसरे कोई भी चीज मेरे साथ न जायगी इस बात पर। यदि इसकी दोनो बातो पर वश चलता होता तो यह स्वच्छन्द होकर न जाने कितना अनर्थ ढाता? जब देखा कि अब यह शरीर की व्याधि की ज्वाला बढ़ गयी है तो इस शरीर को वह विवेकी छोड़ देता है और अपने ज्ञानस्वरूप को बचाने के लिए शरीर के अनुराग से और प्रवृत्ति से दूर हो जाता है। जो बात जीव का उपकार कर सकती है वह बात देह का विनाश करती है। यह तो लौकिक विनाश की बात है, पर जीव का जिस रत्नत्रय भाव से भला है, वीतराग सर्वज्ञता प्रकट हुई है, परमात्मापद मिलता है, अपने स्वरूप का परिपूर्ण विकास होता है तो उस रत्नत्रय से देखो तो जीव का तो कल्याण हुआ, पर देह का विनाश हुआ कि भविष्य में कभी भी त्रिकाल भी आगे भी अब शरीर न मिल सकेगा। ऐसा शरीर का खातमा हो जाता है।
अन्य पदार्थ से स्वके श्रेय का अभाव - भैया! तुम जीव हो या शरीर, अपने आप में निर्णय करो? तुम रंग वाले हो या रंगरहित, अपने आपका निश्चय करिये। तुम ज्ञानस्वरूप हो या ऐसा थूलमथूल शरीर रूप। यदि तुम जड़ शरीररूप हो तो तुझे समझाये ही क्या? जब चेतना ही तुममें नही है तो समझाने का सब उद्यम व्यर्थ है फिर बोलना चालना समझना ये सब व्यर्थ के भाव ही तो हुए ना। ....................... नही नही, मै अचेतन नही हूं, मै अपने आप में रह रहा हूं, जान रहा हूं, समझ रहा हूं, कोई ऐसा ज्ञानमात्र अपने आपको जो निहारता है ऐसा यह जीव यदि तुम हो तो अपने स्वरूप का विकास करो अर्थात् कल्याण करो। जिन बातो से इस आत्मा का उपकार होगा उन बातों पर दृष्टि दो, उन्हे प्रधान महत्व भूत समझो। देखो भोजन आदि पदार्थो से उपभोगों उपदेश भी देते है एक दूसरे को कि इन भोजनादि से शरीर की पुष्टि होती है। होती है पुष्टि पर उन्ही पदार्थो के विकल्प से आत्मा का विनाश होता है, प्रमाद की वृद्धि होती है, कर्मो का आस्रव होता है, मलिन परिणाम होते है और मलिन परिणामो से दुर्गति में जन्म लेना होता है। आत्मस्वरूप से अतिरिक्त अन्य पदार्थो से इसका कुछ भी कल्याण नही है।
देहादिक परिग्रह की अपकारिता - ये धन वैभव आदि आत्मा के उपकारी होते तो महापुरूष इन पदार्थो को त्यागकर अकिञचन न बनते, दिगम्बर न बनते, इनका परित्याग न करते। इससे यह समझना चाहिए कि परिग्रह आत्मा का उपकार करने वाला नही है। परिग्रह में रह रहे हे, पर रहते हुए भी बात तो यथार्थ ही जानना चाहिए। अहो ! अनादि काल से इस देह के सम्बन्ध से ही मैं संतप्त रहा । जैसे अग्नि के सम्बन्ध से पानी तप