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तपश्चरण से जीव काउपकार एवं देह का अपकार - अपने मन को नियंत्रित रखना, अपने आप में समता परिणाम से रह सकना, ऐसा उपयोग का केन्द्रीकरण करना, तपश्चरण करना, अनशन, ऊनोदर व्रतपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और नाना कार्य क्लश - ये सब तपश्चरण पापकर्म के विनाश के कारण भूत है। इन प्रवृत्तियो से आत्मा मे निर्भयता आती है। ये सब चारित्र जीव के भले के लिए है, परन्तु इन तपस्याओं से देह का अपकार होता है। भूख से कम खाये, पूरा रस न खाये, बहुत से अनशन करे तो श्ज्ञरीर का बल भी घटने लगता , इन्द्रियाँ भी दुर्बल हो जाये, आँखो से कम दिखने लगे, अनेक रोग पैदा हो जाते है। देह का विनाश हो जात है और अनन्त काल के लिये भी देह का अभाव हो सकता है। दो बातें सामने है। एक ऐसी चीज है जो देह की बरबादी करे और आत्मा का भला करे और एक ऐसी दशा है जो देह को अत्यन्त पुष्ट करे और आत्मा की बरबादी करे। कौन सा तत्व उपादेय है? विवेकी तो उस तत्व को उपादेया मानता है जो जीव का उपकार कर सकने वाला है।
ज्ञानी का विवेकपूर्ण चिन्तन - भैया ! यह देह न रहेगा। अच्छा सुभग सुडौल सबल पुष्ट हो तो भी न रहेगा, दुर्बल, अपुष्ट हो तो भी न रहेगा, परन्तु जीव का भाव, जीव का संस्कार इस शरीर के छोड़ने पर भी रहेगा। तो जैसे कुटुम्ब के लोग मेहमान में वैसी प्रीति नही करते है जैसी कि अपने पुत्र में करते है। क्योकि जानते है कि यह मेहमान हमारे घर का नही है, आया है जायगा और ये पुत्रादिक मेरे उत्तराधिकारी है, मेरे है, यो समझते है इसीलिए मानो मेहमान नाम रखा है महिमान। जिसके प्रति घर वालों की बड़प्पन की बुद्धि नही है, प्रियता की बुद्वि नही है वे सब महिमान कहलाते है। तो जैसे कुछ समय टिकने वाले के प्रति, अपने घर में न रह सकें ऐसे लोगों के प्रति ये स्नेह नही बढ़ाते अपना वैभव नही सौपं देते, ऐसे ही यह विवेकी कुछ दिन रहने वाले इस शरीर के लिए अपना दुर्भाव नही बनता है, खोटा परिणाम नही करता है, उसकी ही सेवा किया करें ऐसा संकल्प नही होता, अपने उद्वार की चिन्ता होती है उसको जो ऐसा ज्ञानी हो, विवेकी हो।
आत्मनिधि की रक्षा का विवेक - जैसे घर की कुटी में आग लग जाय तो जब तक कोई धन बचाया जा सकता है तब तक यह प्रयत्न करता है कि धन वैभव की रक्षा कर ले। जब आग तेज लग गयी, ज्वार निकलने लगी तो फिर वहाँ अपने प्राणो का भी खतरा रहता है, उस समय धन सम्पदा को छोड़ दिया जाता है और अपने प्राणो को बचा लिया जाता है। ऐसे ही यह शरीर जब क्षीण हो रहा है, दुर्बल हो रहा है, रोगी हो रहा है तो कोशिश करें कि यह ठीक हो जाय जिससे हम अपने धर्म पालन में समर्थ हो सके, पर जब ज्वाला इतनी बढ़ जाय, शरीर की जीर्णता इतनी अधिक हो जाय, रोग बढ़ जाय कि शरीर अब टिकने का नही है तो क्या विवेकी उस शरीर के लिए रोये? हाय अब मै न रहूगां, अब