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________________ होता है? तो आत्मा का हित भी होगा, उसके उत्तर में कहा जा रहा है कि धन आदि परपदार्थो से कभी आत्मा का हित नही होता है। इस जीव का सबसे बड़ा बैरी मोह है, मोह का आश्रय धन वैभव है। इस मोह में आकर यह देव, शास्त्र, गुरू का विनय भी, इनकी आस्था भी योग्य रीति से करता ही नही है। जब परपदार्थो से अपने हित की श्रद्धा है तो मोक्षमार्ग के प्रयोजन भूत अथवा धर्मात्मा साधु संत जनों के प्रति आस्था कैसे हो सकती है? सबसे प्रबल बैरी मोह है। अन्य पदार्थ इस जीव के विराधक नही है। जैसे आस्तीन में घुसा हुआ सांप विनाश का कारण है इसी प्रकार आत्माक्षेत्र में बना हुआ यह मोह परिणाम इस आत्मा के ही विनाश का कारण है। जीव की बुद्धि विपरीत हो जाती है मोहभाव के कारण। बुद्धि की मलीनता ही वास्तविक विपत्ति - इस मोह की ही प्ररेणा से विषयो में जीव प्रवृत्त होता है। ये समस्त विषय जीव का विनाश करने के कारण है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति का निधान यह ब्रहा परमात्मतत्व प्रकट नही हो पा रहा है और संसार भ्रमण में लगा हुआ है, इससे बढ़कर बरबादी और किसे कह सकते है? इस जीव को इस भव में जो कुछ मिला है यह बरबाद हो जाय तब भी जीव की बरबादी नही है, और यह जीव अपने स्वरूप का ज्ञान न कर सके, अपनी बुद्वि को पवित्र न रख सके और कितना ही करोड़ो का वैभव मिल जाये तो भी वहाँ जीव की बरबादी है। कितने ही विषय तो देह का भी अपकार करते है और जीव का भी अपकार करते है। जैसे स्पर्श इन्द्रिय का विषय काम मैथुन, व्यभिचार, कुशील ये देह को भी बरबाद करते है और जीव को भी बरबाद करते है, बुद्वि भी हर लेते है। पापों का उसके प्रबल उदय शीघ्र ही आने वाला है जो अपने आचार से गिरा हआ है, उस मोही की दृष्टि में कहा जा रहा है कि ऐसे काम आचरण को भी यह मोही जीव देह के उपकार के लिए मानता है, पर वही प्रवर्तन इस जीव का विनाश करने का कारण है संग समान से जीव का अपकार -परिजन मे रहना मित्र मंडली मे रहना इनको यह मोही जीव उपकार करने वाला है पर वस्तुत ये सर्व समागम जीव के अपकार केलिए है, बरबादी के लिए है। इस जी व का केवल अपना स्वरूप ही इसका है। चैतन्य स्वभाव के अतिरिक्त अणु मात्र भी अन्य पदार्थ इस आत्मा का कुछ नही लगता। इस आत्मा के लिए जैसे विदेश के लोग भिन्न है अथवा पड़ोस के लोग भिन्न है। उतने ही भिन्न, पूरे ही भिन्न घर में पैदा हुए मनुष्य भी है, अथवा जिनमें यश इज्जत चाहा है वे पुरूष भी उतने ही भिन्न है, फिर भी उनमें से यह छंटनी कर लेगा कि यह मेरा साधक है, यह मेरा बाधक है, उस उन्मत दशा है। ये मनचाही बातें, मनको प्रसन्न करने वाली घटनाएँ ये देह का भले ही उपकार करे, देह स्वस्थ रह, प्रसन्न रहे मौज में रहे, परन्तु इन सब बातो से जीव का अपकार है, विनाश है।
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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