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________________ दिपै चाम चादर मढ़ी हाड़ पीजरा देह। भीतर या सम जगत में और नही घिन गेह।। यह हाड़ मांस का पिंड है। कोई पुरुष अत्यन्त दुर्बल हो तो यह पिंजड़ा बिल्कुल स्पष्ट समझ में आता है। कोई वैद्य लोग अत्यन्त दुर्बल शरीर कर चित्र छपवाते है, उसमें देखो तो शरीर का पिजंडा स्पष्ट दीखता है। ऐसा ही पिंजड़ा देखने के मिल जायगा, वही संग्रहालय में देखने को मिलेगा या मरघट में वहाँ ऐसा ही पिजड़ देखने को मिल जायगा, वही पिजंडा हम आपके शरीर में है। फर्क इतना है कि हम आपके शरीर पर चाम चादर मढ़ी हुई है, किन्तु भीतर तो इसमें सभी अपवित्र चीजें है। यह शरीर इतना अपवित्र है कि कितना पवित्र पदार्थ हो इसका स्पर्श करने से वह भी अपवित्र हो जाता है, फिर भी इन मोही जीवों ने यह शरीर बड़ा प्रिय माना है, इस शरीर की प्रतिष्ठा से ही निरन्तर संतुष्ट रहतें है। किन्तु ज्ञानी जीव शरीर के यथार्थ स्वरूप को समझतें है, उन्हें इस शरीर से अन्तरंग में राग नही होता है। अनादि काल से भटकतें हुए आज हमें यह दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है, ये जिनेन्द्र वचन मिले है तो हम इनका लाभ उठायें, मायामय चीजों में आसक्त होकर आत्मकल्याण करे। इसके लिए ही ज्ञानी अपना जीवन समझते है। यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ।।19।। जीव के उपकार में देह की अपकारिता व देह के उपकार में जीव की अपकारिता - जो तत्व जीव के उपकार में लिए होता है वह तत्व देह का अपकार करने वाला होता है, और जो पदार्थ देह के उपकार के लिए होता है वह पदार्थ जीव का अपकार करने वाला होता है। अनशन आदि तप, व्रत, समिति, संयम इन चारित्रोका धारण करना जीव के उपकार के लिए है। यह चारित्र पूर्वकाल में बांधे हुए कर्मो का क्षय करने वाला है और भविष्यकाल में पाप न हो सके, यो कर्मो का आस्रव रोकने वाला है। इस कारण ये तपस्याएँ, चारित्र जीव के उपकार के लिए है, तो ये तपस्याएँ शरीर का अपकार करने वाली है, शरीर सूख जाता है, काला पड़ जाता है आदि रूप से शरीर का अपकार होने लगता है, और जो धन वैभव सम्पदा देह के उपकार के लिए है जिसके प्रसाद से खूब खाये, पिये, भोग साधन जुटायें, आराम से रहें जिससे देह कोमल, बलिष्ठ, मोटा, स्थूल हो जाय, सो ये वैभव धन आदि परिग्रह जीव के अपकार के लिए है। पर के आश्रय में आत्मा का अपकार - इससे पूर्व श्लोक में यह प्रसंग चल रहा था कि धन आदि से शरीर का उपकार नही होता है, सो शकाकार कहता है कि मत होवो शरीर का उपकार, किन्तु धन से व्रत, दान आदि लेने के कारण आत्मा का उपकार तो 70
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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