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________________ रूप चमक दमक रहती है वह अन्य है क्या ? मल, मूत्र, खून इनका पिंड ही तो है। इनका ही एक संग्रहीत रूप रूप कहलाती है। अशुचि अजंगम शरीर इस शरीर को पाकर पवित्रसे भी पवित्र वस्तु अपवित्र हो जाती है। किसीकी पहिनी हुई कमीज भी कोई भी दूसरा नही पहिनना चाहता। अब बतलावो देहसे सम्बद्ध उपभोग वाली वस्तु भी दूसरे ग्रहण नही कर सकते है, ऐसा यह अपवित्र शरीर है। यह शरीर अजंगम है, स्वयं नही चलता। न जीव हो शरीर में तो क्या शरीर चल देगा? जीव को प्रेरणा नही होती शरीर में तो देह तो न चल सकेगा। जैसे अजंगम यंत्र मोटर साइकिल ये किसी जंगम ड्राइवरके द्वारा चलाये जाते है, स्वंय तो नही चलते, ऐसेही यह थूलमथूल शरीर भी स्वयं नही चल सकता है। मुर्दा तो कही चल नहीं पाता। जो मुर्देमे है ऐसा ही इसमें है, फर्क यह है कि तैजस और कार्माण सहित जीव इसमें बसा हुआ है इससे इसमें चमकदमद तेज है और चलने फिरनेकी क्रिया होती है। यह शरीर अजंगम है। किसी जंगम शरीरके द्वारा चलाया जा रहा है - भयानक और संतापक शरीर यह शरीर भयानक है । यही शरीर रागी पुरूषको प्रिय लगात है और विरागी पुरूषको यही शरीर यथार्थ स्वरूप को दिखता है और वृद्वावस्था हा जाय तब तो शरीर की स्थिति स्पष्ट भयानक हो जाती है। कोई अंधेरे उजेले में बच्चा निरखले बूढ़ेके शरीर को तो वह डर जाय ऐसा भयानक हो जाता है । यो यह अपवित्र शरीर भयानक भी है। कोई कहे कि रहने दो भयानक, रहने दो अपवित्र, फिर भी हमें इस शरीर से प्रीति है । तो भाई यह शरीर प्रीति करने लायक रंच नही है क्योकि यह शरीर संतापको ही उत्पन्न करता है। इसमें स्नेह करना व्यर्थ है । — मोहियो द्वारा अलौकिक वैभवकी उपेक्षा भैया ! सबसे अलौकिक वैभव है शरीर पर भी दृष्टि न रखकर, किसी भी परपदार्थ का विकल्प न करके केवल ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्वको निरखे तो वहाँ जो आनन्द प्रकट होता है वही अद्भुत आनन्द है, उसमें ही कर्मोको जलाकर भस्म कर देने की सामर्थ्य है । वह आनन्द जिनकी दृष्टि में आया है उनका मनुष्य होना सार्थक है और जीवोको अपने आत्माका शुद्व आनन्द अनुभव में नही आया है वे विषयोके प्रार्थी बनते है, देहकी प्रार्थन करते है, शरीर की आशा रखते है और कामादिक विकारोमें उलझ कर अपना जीवन गंवा देते है। इस जीवकी प्रकृति तो आनन्द पाने के लिए उत्सुक रहती है। यह आनन्द पाये, इसे शुद्व आनन्द मिले तो कल्पित सुख या दुःखकी और कौन झुकेगा? पर जब शुद्व आनन्द ही नही मिलता, सो कल्पित सुखकी और लगना पड़ता है। शरीर की अशुचितांका संक्षिप्त विवरण - छहढालामें कहा है- 'पल रूधिर राधमल थैली, कीकश वसादितै मैली । नवद्वार बहैं घिनकारी, अस दैह करै किम यारी । मासं, 68
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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