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________________ परमार्थतः परबंध बन्ध का अकारण तब तीसरा बोला कि वाह इनके चलने फिरने से अथवा अन्य प्रकार से जीवो का घात होता रहता है तब इन्हे कर्मबंध कैसे नही होता ? अच्छा बतलाओ कि जो साधु हो गए है, महाव्रत का जो जो पालन करते है, समितिपूर्वक गमन करते है ऐसे साधु संत अच्छे काम के लिए अच्छे भाव सहित दिन में चार हाथ आगे जमीन देखकर ईर्या समिति से जा रहे हो और अचानक कोई कुन्थु जीव पैरो के नीचे आकर दबकर मर जाय तो क्या उन साधुओ के भी कर्म बंध होता है? परिणाम ही नही है उनका क्रूर कैसे बंधे कर्म? तो यह भी बात तुम्हारी युक्त नही है। — कर्मबन्ध का कारण कर्मबधं का करने वाला केवल स्नेह भाव है। उपयोग में जो राग बस रहा है, मोह राग द्वेष चल रहा है यह ही कर्मबन्धन का कारण है । जो जीव रागद्वेष विभावो के साथ अपना एकीकरण करता राग करता है, यह मै ऐसा ही हूं, राग से भिन्न शुद्व चैतन्यस्वरूप मेंरा है ऐसा जो नही मान सकता है ऐसे पुरूष के बन्धन होता है । इस ही को ममत्व सहित पुरूष कहा गया है। - पर्यायव्यामोही के सकल विश्व के मोह का संस्कार जो अपने शरीर में 'यह मैं हूँ' ऐसा अंहकार रखता है, ममकार रखता है उसने सर्वविश्व का अहंकार और ममकार किया है । यद्यपि इस मोही जीव के पास किसी के 50 हजार की विभूति हो, लाख की हो, कुछ साराजगत का वैभव तो नही है । तो क्या उसे केवल 50 हजार में ही ममता है या लाख में ही ममता है ? इस अज्ञानी जीव को सारे विश्व में ममता है। न हो पास इसके और योग्यता भी विशाल न होने से अन्य विभावो की कल्पना भी न उठती हो तिस पर भी उसकी वासना में तीन लोक के वैभव के प्रति आत्मीयता बसी है अन्यथा उसके सामने रख दो और वैभव, क्या वह मना कर देगा कि अब मुझे न चाहिए ? उसकी तृष्णा शान्त नही हो सकती। मोह में सारे विश्व के प्रति ममता का परिणाम बसा हुआ है और इस कारण उसे समस्त जगत का बन्धन लग रहा है। अध्यवसान में कर्मबधं की निरन्तरता भैया ! पदार्थो में इष्ट अनिष्ट कल्पनाएँ होने से रागद्वेष का अस्तित्व आत्मा में अपना स्थान जमा लेता है और फिर यह उपयोग उन विभाव भावो के कारण विकृत हो जाता है, सर्व प्रकार से पर में तन्मय हो जाता है उस समय रागद्वेष परिणामरूप यह अध्यवसान भाव ही बंध का कारण होता है। जो पुरूष यह मेरा यह दूसरे का है, इसका मै मालिक हूं इसका दूसरा मालिक है - ऐसी रागबुद्वि बसाये, परमर्षि कहते है उनके शुभ अशुभ कर्म बँधते ही रहते है। कर्मबन्धन के लिए निमित्त चाहिए रागादिक भाव, उसके लिए हाथ कैसे चल रहे है यह निमित्त नही है, पैर कैसे उठ रहे है यह निमित्त नही है । पूजा भी करता हो कोई और परिणामों में विषयो के साधनो की बात बसी हो अथवा किसी पुरूष के प्रति बैर भाव बसा हो तो पाप का बंध हो जायगा । कर्म इस बात से नही अटकते है कि मंदिर में खड़े है तो हम इनके न बँधे, ये भगवान के 110
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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