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समक्ष खड़े है इनके न बँधे, ऐसी अटक कर्मों में नही है। कर्मो के बन्धन का निमित्त तो रागद्वेष मोह अध्यवसान भाव है, वह हुआ तो कर्म बँध गया। चाहे वह तीर्थ क्षेत्र में हो, चाहे मंदिर स्थान में हो, चाहे वह साधुओं के संग में समक्ष में बैठा हो ।
ममतारहित शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप की उपासना का अभिनन्दन जिन पुरुषो के वैराग्य और ज्ञान का परिणमन चल रहा है उनके कर्म नही बँधते है, किन्तु अनेक कर्म निर्जरा को प्राप्त होते हे क्योकि उनके चित्त में शुद्ध कारण समयसार विराजमान है। वे चाहे किसी घर में खड़े हो, चाहे किन्ही वस्तुवो में गुजर रहे हो, किन्ही भी बाह्रा परिस्थितियो में हा, जिन जीवो क रागद्वेषादिक भावो में अपनायत नही है, जो अपने सहजशुद्व चैतन्यस्वरूप की उपासना करते है उन पुरूषो के कर्म नहीं बँध सकते। कर्मो का बन्धन अहंकार और ममकार परिणाम के कारण होता है। यह मै हूं, यह मै जो हर जगह में मैं मैं बगराता है, हर जगह ममता करता है उसको कर्म बंधन तो होगा ही । रेल की सफर में जा रहे हो और किसी मुसाफिर से थोड़ा स्नेह हो जाय, थोड़े वचनव्यवहार से तो इतने में ही बन्धन हो जाता है। जब वियोग होता है, किसी एक के उतरने का स्टेशन आ जाता है तो उसमें कुछ थोड़ा ख्याल तो जरूर आ जाता है । समस्त संकटो का मूल स्नेह भाव है। इस स्नेह में जो रंगा पँगा है वह बँध जाता है, और जो रागादिक भावो से भी न्यारा अपने आपको निरखता है, अपने को शुद्ध अकिञ्चन देखता है, मात्र ज्ञानानन्दस्वरूप प्रतीति में लेता हे वह कर्मों से छूट जाता है। इस कारण मुक्ति चाहने वाले पुरूष को अपने को ममता रहित अपने शुद्ध ज्ञानानन्द स्वरूप को निरखना चाहिए।
एकोऽहं निर्ममः शुद्वो ज्ञानी योगीन्द्र गोचर : |
बाह्राः संयोगजा भावाः मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा | 127 ||
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ज्ञानी का चिन्तन ज्ञानी पुरूष चिन्तन कर रहा है कि मैं एक हूँ, अकेला हूँ अपनी सब प्रकार की सृष्टियो में मै ही एक परिणत होता रहता हूं। मेरा कोई दूसरा नही है । मेरा मात्र मै ही हूं, निर्मम हूं। मेरे में ममता परिणाम भी नही है और ममता परिणाम का विषयभूत कोई पदार्थ मेरा नही हे। मैं शुद्ध हूं अर्थात् समस्त परपदार्थो से विविक्त अपने आपके द्रव्यत्व गुण से परिणत रहने वाला हूं, योगीन्द्रो के द्वारा गोचर हूं। मेरा यह सहज आत्मस्वरूप योगीन्द्र पुरूषो के द्वारा विदित है । अन्य समस्त संयोगजन्य भाव मेरे से सर्वथा पृथक है।
नाना पर्यायो में भी आत्मा का एकत्व यद्यपि पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से यह जीव नाना रूप बनता है। मनुष्य बना, देव बना, नारकी हुआ, नाना प्रकार का तिर्यञ हुआ । नाना विभाव व्यञजन पर्याये प्रकट हुई है फिर भी यह जीव अपने स्वरूप में एक ही प्रतिभासमान है, प्रत्येक पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक होता है। कोई पदार्थ हो वह है और उसकी कुछ न कुछ
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