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________________ क्षीण हो जाता है ऐसे ही परव्यामोहमें ज्ञानबल क्षीण हो जाता है। पागल पुरूष नशे में उन्मत होकर अपने स्वरूपको भूल जाते है, अपने हितका ध्यान नही रख सकते है । ऐसे ही धनी पुरुष भी दूसरो की सम्पदा, घर आदिको विनष्ट होते हुए देखकर कभी विचार नही करते कि यह काल अग्नि इस तरह मुझे भी न छोड़ेगी, अतः शीघ्र ही आत्महित कर लेना श्रेष्ठ है । गलती को भी मानने का व्यामोह इस जीव में ज्ञान भी प्रकाशमान हे और रागादिकके रंग भी चढ़े हुए है जिससे ज्ञान का तो उपयोग दूसरो के लिए करते है और कषायका उपयोग अपने लिए करते है। दूसरोकी रंच भी गल्ती ज्ञानमें आ जाती है और उसे वे पहाड़ बराबर मान लेते है। अपनी अपनी बड़ी गलती भी इन्हे मालूम ही नही होती है, ये तो निरन्तर अपने को चतुर समझते है। कुछ भी कार्य करे कोई, ललाका कार्य करे अथवा किसी प्रकार का हठ करे तो उसमें यें अपनी चतुराई मानते है। मै बहुत चतुर हूं। खुद अपने मुँह मियामिट्ठू बनते है। अपने को कलावान, विद्यावन, चतुर मान लेने से तो कार्य सिद्वि न हो जायगी। अपनी तुच्छ बातो पर चतुराई मनाने में यह जीव अपने आपको बड़ा विद्वान समझ रहा हे। उपदेश देने भी बड़ा कुशल हो जाता है। शास्त्र लेकर बाँचने बैठा या शास्त्र सभा करने बैठा तो राग द्वेष नही करने योग्य है । और आत्मध्यान करने योग्य है- इस विषयका बड़ी कला और खूबीसे वर्णन कर लेता है पर खुद भी उस सब हितमयी वार्ताको कितना अपने में उतारता है सो उस और भावना ही नही है । अज्ञानीकी समझमे अपनी भूल भी फूल भैया ! दूसरो की विपत्ति तो बहुत शीघ्र पकड़ में आ जाती है, किन्तु अपने आपकी बड़ी भूल भी समझ मे नही आती। कभी किसी जीव पर क्रोध किया जा रहा है और उससे लड़ाई की जा रही है तो बीच बिचौनिया करने वाला पुरूष मूढं जंचता है इस क्रोधको । इसे कुछ पता नही है कि मै कितना सहनशील हूं। और यह दूसरा कितना दुष्ट व्यवहार करने वाला है? उसे क्रोध करते हुए भी अपनी चतुराई मालूम हो रही है, परन्तु दूसरे पुरूष जानते है, मजाक करते है कि न कुछ बात पर बिना प्रयोजनके यह मनुष्य कितना उल्टा चल रहा है, क्रोध कर रहा है। विषयकषायोकी रूचि होने से इस जीवपर बड़ी विपदा है। बाहरी पौद्गलिक विपदा मिलनेपर भी यह जीव कितना अपने मन में विषयकषायोको पकड़े हुए है इन विषयो`स जुदा हो पा रहे है या नही, अपने पर कुछ हमने काबू किया या नही इस और दृष्टि नही देते है ये अज्ञानी पुरुष । तो प्रत्येक परिस्थिति में अपने को चतुर मानते है । J विभाव विपदा मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ इन 6 जातियोके जो विभाव परिणाम है यह ही जीवपर वास्तविक विपदा है। जीवोपर विपदा कोई अन्य पदार्थ नही ढा सकते है। ये अपनी कल्पना में आप से ही विपदा उत्पन्न कर रहे है। क्या है विपत्ति इस जीवपर? मोह अज्ञान कामवासना का भाव । क्रोध मान, माया, लोभ आदि के कषायो के 50 -
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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