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________________ कितना ही टैक्स देना कितना ही अधिकारियोंको मनाने में खर्चा करना कितना श्रम, कितनी विपदाएँ ये सब धन आदि के वैभवके पीछे ही तो होती है। ज्ञानीका परिवर्तन - कल्याणार्थी गृहस्थकी चर्या इस प्रकार रहती है कि आवश्यकतानुसार धन का उर्पाजन करना और अपने जीवनको धर्मपालनके लिए ही लगाना। ऐसा भाव बनाना चाहिए कि हम धनी बनने के लिए मनुष्य नही हुए है, किन्तु ज्ञानानन्दनिजपरमात्म प्रभुके दर्शन के लिए हम मनुष्य हुए है। ये बाहरी पोजीशन गुजारे की बातें ये तो जिस किसी भी प्रकार हो सकती है, किन्तु संसार के संकटोसे मुक्ति का उपाय एक ही ढंगसे है, और वह ढंग इस मनुष्यजीवन में बन पाता है, इस कारण ज्ञानी पुरूषका लक्ष्य तो धर्मपालनका रहता है, किन्तु अज्ञानी पुरुषका लक्ष्य विषयसाधनोके संचय और विषयोंके भोगनेमें ही रहता है। यद्यपि धन आदि के कारण आयी हुई विपदा देखें तो धनकी आशा सर्वथा छोड़ देना चाहिए क्योकि आशा न करनेसे ही आने वाली विपदासे अपनी रक्षा हो सकती है। लेकिन यह धन वैभवकी आशा छोड़ नही पाता है। यही अज्ञान है और यही दुःखका जनक है। अनर्थ आवश्यकतावोकी वृद्विमें बरबादी – यद्यपि वर्तमानमें श्रावक की गृहस्थवस्था है, दूकान करना होता है, आजीविका व्यापार करना पड़ता है, परन्तु ज्ञानीका तो इस सम्बधं में यह ध्यान रहता है कि यह वैभव साधारण श्रम करने पर जितना आना हो आये, हममे तो वह कला है कि उसके अन्दर ही अपना गुजारा और निबटारा कर सकते है। अपनी आवश्कताएँ बढ़ाकर धनकी आय के लिए श्रम करना यह उचित नही है, किन्तु सहज ही जो धन आये उसे ही ढंगसे विभाग करते गुजारा कर लेना चाहिए। अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति के लिए धन संचय करना, श्रम करना, नटखट करना यह सज्जन पुरूष नही किया करते है। कितनी ही अनेक वाहियात बातें है, बीडी पीना, सिनेमा देखना, पान खाते रहना और बाजारू चाट चटपटी आदि छोटी छोटी चीजें खाना- ये सब व्यर्थकी बातें है, इन्हें न करें तो इस मनुष्यका क्या बिगड़ता है, बल्कि इनके करनेसे मनुष्य बिगड़ता है। बीड़ी पीने से कलेजा जल जाता है और उससे कितने ही असाध्य रोगो का आवास हो जाता है, सिनेमा देखने से दिल में कुछ चालाकी, ठगी, दगाबाजी अथवा काम वासनाकी बातें इन सबकी शिक्षा मिल जाती है। लाभ कुछ नही देखा जाता है। इन व्यर्थ की बातो को न करें उसे कितना आराम मिले। व्यामोहमें अविवेक और विनाश – भैया! धनसंचयकी तीव्र इच्छा न रहे, एक या दो टाइम खा पी लिया, तुष्ट हो गए, फिर फिक्र की कुछ बात भी है क्या? लेकिन तृष्णवश यह पुरूष अप्राप्त वस्तुकी आशा करके प्राप्त वस्तुका भी सुख नही लूट सकते है। वे तो मद्यके नशेमें उन्मत हुए प्राणियोके समान अपने स्वरूप को भूल जाते है। अपने हितका मोहमें कुछ ध्यान नही रहता है। मत्त होने में बेचैनी पागलपन चढ़ता है, शरीरबल जैसे 49
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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