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________________ आगे। जो कुछ है वह दिखता हुआ सब कुछ है इसलिए आरामसे रहो, खूब मौजसे रहो, कर्जा हो तो हो जाने दो मगर खूब घी शक्कर खावो। आगे न चुकाना पड़ेगा, जीव आगे कहाँ रहता है, ऐसी बातें सुननेमें जगतके लौकिक जीवोंको तो प्रिय लगती होगी, ऐसे लौकिक वचन जिनको प्रिय लगते है उनका नाम है चारूवाक। यह तो सिद्वान्त वाली बात है, परन्तु इस सिद्वान्तका परिचय नही है तो न सही किन्तु इस मंतव्य वाले इने गिने बिरले तत्वज्ञ साधु संतोको छोड़कर सारी दुनिया इसके मतकी अनुयायी है। नास्तिकता - भैया ! यों तो नाम के लिए कोई जैन कहलाए फिर भी इन जैनो में जैसे माना आज संख्या लाखोकी है तो उन जैनो में वयावहारिक रूपसे और मंतव्यके रूपसे चारवाककी श्रेणी में अधिक होगा। और भी जितने धर्म मजहब है उनमें भी चारूवाक भरे पड़े है। जो आस्तिक नही है वे सब चारूवाक है। यहाँ आस्तिकका अर्थ है पदार्थ की जिसकी जैसी सत्ता है, अस्तित्व है उसे जो माने उसका नाम आस्तिक है, और जो पदार्थका अस्तित्व न मानें उनका नाम नास्तिक है। यह तो मनगढन्त परिभाषा है कि जो हमारे शास्त्रोको न माने सो नास्तिक है। जो हमारे वेदोको न माने सो नास्तिक, जो हमारे कुरानको न माने से नास्तिक। हर एक कोई अपना अपना अर्थ लगा ले, कोई काफिर शब्द कहता है, कोई नास्तिक शब्द कहता है, कोई मिथ्यादृष्टि शब्द कहता है, ये सब एकार्थक शब्द है। नास्तिक का अर्थ यह नही है कि जो मेरे मतकी बात न माने सो नास्तिक, किन्तु नास्तिकका अर्थ है पदार्थकी जैसी सत्ता है, अस्तित्व है उस अस्तित्वका न होना माने सो नास्तिक है। नास्तिक शब्द में कहाँ लिखा है यह कि वेदको या अमुक मजहबको या इस पुराणको न माने सो नास्तिक उसमें दो ही तो शब्द है, न और अस्ति। जैसा जो अस्ति है उसे न माने सो नास्तिक। लौकात्यायकता - चारूवाक सिद्वान्त में यह मत बना है कि आत्मा कुछ नही है। पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु के संयोग से एक नवीन शक्ति प्रकट हो जाती है जिसे लोग जीव कहते है। जैसे महुवा और कोदो आदिक जो मादक पदार्थ है उनका सम्पर्क हो, वे सड़े गले तो एक मादक शक्ति पैदा हो जाती है जिसके सेवनसे, नशाजनक उन्मादक पदार्थोके प्रयोग से मनुष्य पागल हो जाता है। तो जैसे शराब कोदो में नही भरी पड़ी है, कोदोको लोग खाते है, उसके चावल खाते है, रोटी खातें है? कोदोमे कहाँ शराब है पर कोदो और अन्य अन्य पदार्थो को मिला दिया जाय तो विधिपूर्वक उन पदार्थोका संयोग होनेसे शराब बन जाती है, ऐसे ही पृथ्वी में समझ नही है, जलमें चेतना नही है, अग्निमं नही है, वायु में नही है, पर इसका विधिपूर्वक संयोग हो जाय तो चेतना शक्ति हो जाती है ऐसा चारूवाकका सिद्वान्त है। चार्वाकसिद्वान्त में आत्मविनाशकी विधि - चार्वाक मन्तव्य में यह धारणा जमी हुई है कि पृथ्वी आदि बिखरे कि चेतना मूलसे खतम हो गई। पृथ्वी पृथ्वी से मिल गयी, अग्नि 84
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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