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________________ सब क्लेशो को सहता हुआ भी यह मोही जीव परद्रव्यों के मोह को नही त्यागना चाहता और उनसे विरक्त होकर अपने आप में वह नहीं आना चाहता है, यह दशा इस व्यामोही जीव की हो रही है कर्तव्य यह है विरक्त होकर अपने आप में वह नही आना चाहता है, यह दशा इस व्यामोही जीव की हो रही है। कर्तव्य यह है कि वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध करें और इस मोहपरिणाम को मिटा दे, जिससे इस ही समय क्लेशो को बोझ हट जाये, यही एक उपाय है इस मनुष्ययजन्म को सफल करने का कि हम सच्चा बोध पायें और संकटो से छूटने का मार्ग प्राप्त करे । आत्मानुष्ठानिष्ठस्य व्यवहारबहि-स्थितेः । जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिन । । 47 || इष्ट का उपदेश इस ग्रन्थ का नाम इष्टोपदेश है। जो इष्ट है उसका इसमें उपदेश किया है। कोई रोग में अनिष्ट चीज को इष्ट मान ले तो वह तो वास्तव में इष्ट नही है, ऐसे ही मोह रागद्वेष के रोगी विषय कषायों के ज्वर में पीड़ित ये प्राणी किसी भी वस्तु को इष्ट मान लें तो वे वास्तव में इष्ट तो न हो जायेंगे। जो जीव वास्तव में भला करें उसे इष्ट कहते है। इष्ट को इसमें उपदेश किया गया है। आत्मनिर्णय – हम आप सब आत्मा है अर्थात् जानन देखनहार एक तत्व है। हमें जो कुछ निर्णय करना है वह आत्मतत्व के नाते निर्णय करना है। हम अपने को किसी जाति का, किसी कुलका न समझें यह तो दूर की बात है, हम अपने को मनुष्य भी न समझें किन्तु एक मनुष्य देह में आज बंध गया हूं, मनुष्य देह में बँधने वाला यह पदार्थ एक जाननहार चैतन्यस्वरूप ह । उस आत्मा के नाते निर्णय करें हितका । जहाँ अपने स्वरूप का नाता जोड़ा, फिर बाहर में ये मायामय स्कंध नजर आते। जब खुद में लगने का खुद विषय नही रहा तो बाह्रा पदार्थो में यह लगता है और उन्हें अपनाता है। कल्याणकामुक की धर्मविषयक एक मुसीबत कभी इस मोही जीव को कुछ धर्मबुद्वि जगे, कुछ कल्याण के करने की कामना की हिलोर आए, भावना जगे तो उसके मुसीबत इसके प्रसंग में एक बहुत कठिन आती है। वह मुसीबत है नाना पंथों की उलझन में पड़ जाना। यह मुसीबत आ रही है नाना रूप कल्पनाएँ करने के कारण। मै अमुक हूं, मेरा धर्म यह है, मेरा देव यह है, मेरी गोष्ठी वातावरण यह है, इस प्रकार का बाह्रा में एक आत्मा का बोध होता है और उस आशय से यह कल्याण से वंचित होता है । यद्यपि यह बात ठीक है कि जो भी पुरूष अपना कल्याण कर सके है वे पुरूष जिस गोष्ठी में रहे हुए होते है, जिस जाति कुल अथवा प्रवृत्ति रूप धर्म को धारण करके मुक्त होते है वह व्यवहार धर्म पालन करने के योग्य है । ठीक है किन्तु दृष्टि में मुख्यता व्यवहार धर्म की जिसके रहे उसको मार्ग नही मिलता है। ये समस्त आचरण एक अवलम्बन मात्र है, करना क्या है, वह अपने अंतरंग में अपने आप सहज अनुभव की जाने वाली चीज है । 209
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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