________________
पर से दुःख और निज से सुख - अभी कुछ पूर्व में यह बताया गया था कि परपदार्थ तो पर ही है, उनसे दुःख होता है और अपना आप आप ही है उससे सुख होता है, क्योकि जो परपदार्थ है वे सदा मेरे निकट नही रह सकते है। जो परपदार्थ है वे अपनी ही परिणमनशीलता के कारण अपनी योग्तानुसार परिणमेंगे, मेरी कल्पना से नही। ये दो मुख्य प्रतिकूलताएँ आती है इस कारण किसी पर से स्नेह करने मे सुख नही रहता ? लोक में भी कहते है कि अपना है सो अपना ही है, अर्थात जो खुद का घर है उसे कौन छुटा लेगा। उसमें रहना भला है। जो खुद के परिजन है वे कहाँ भाग जायेगें, उनका विश्वास किया जा सकता है, किन्तु जो गैर है, जो पराधीन मकान है, दूसरे का है, उस पर स्नेह करना भला नही है। जरा और अपने हितमार्ग में अंतः टटोलकर निरखो। जो पर है, याने परिजन, धन सम्पदा आदि पर है, अपने आत्मतत्व को छोड़कर जितने भी अनात्मपदार्थ है वे सब पर है, ये भिन्न है, इनका वियोग होगा, ये मेरी इच्छा के अनुकूल परिणमते है, इस कारण उनके स्नेह में सदा क्लेश रहता है और अपने आपका आत्मतत्व अर्थात् ज्ञानस्वरूप जिस ज्ञान को हम जान रहे है उस ही ज्ञान का स्वरूप वह मुझ में कहाँ अलग होगा, वह अन्य भी नही है, माया रूप भी नही है, वह शाश्वत शक्ति है, परमार्थ है, मुझसे तन्मय है, उसका आश्रय लेने से नियम से आनन्द होगा क्योकि यह मैं स्वयं आनन्दमय हूं और शाश्वत हूं।
आत्मपरिचय के मार्ग में - मैं मेरे को ही पहिचानें तो उससे आनन्द मिलता है। इस कारण जो महात्मा जन होते है अर्थात् विवेकी ज्ञानी पुरूष होते है वे आत्मलाभ के लिए ही उद्यम किया करते है। इस आत्मलाभ में कौन सा अभिष्ट चमत्कार होता है? उसका वर्णन इस श्लोक में किया जा रहा है। आत्मा में किस उपाय से भोग किया जायगा, किस तरह अनुष्ठान बनेगा, कैसे अध्यात्मवृत्ति बनेगी, उसके लिए प्रथम उपाय यह जीव करता है प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार का। कोई पुरूष जन्मते ही शुद्ध निश्चय अध्यात्म का परिज्ञान और प्रयोग करता हुआ नही आया। यह बात बने तब बने, किन्तु उससे पहिले क्या स्थितियां गुजरी, कितना व्यवहार किया, सत्संग, देवदर्शन, सदाचार, अध्ययन और कुछ मनन ध्यान का उद्योग आदि ये बहुत-बहुत प्रकार प्रवृत्तियां चलती रही। किसी दिन किसी क्षण जो कि एक नया दिन है समझना, आत्मा के लिए मिला। अपने सहज चित्स्वरूप की दृष्टि जगे तो आत्मा का परिचय मिले। लेकिन प्रथम तो प्रवृत्ति और निवृत्ति का व्यवहार ही चला करता है। अब जब आनन्दमय निज अंतस्तत्व का आश्रय हो तब उसके व्यवहार की स्थिति नही रही अब वह न कही प्रवृत्ति करता है और न कही निवृत्ति करता है। लोग अध्यात्म योग के अर्थ की गई विभिन्न परिस्थितियों में साधनाओ के मर्म को न जानकर कितने ही संदेह करने लगते है और कुछ नही करना चाहते। न पूजन, न ध्यान, न सत्संग। वे यह कहने की उलायत मचातें है कि ये पूजनादिक सब तो व्यवहार बताये गये
210