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________________ के शेष जीव कुछ नही है। यहाँ कितना बड़ा पागलपन छाया है? दुःखी होता जाता है, और दुःख का कारण जो अज्ञान है, मोह उसे छोड़ना नही चाहता है। निर्मोहता का आदर - धन्य है वे गृहस्थ जन जो गृहस्थी के सम्पदा के बीच रहते हुए जल में भिन्न कमल की नाई रहते है। यह जो आगम में लिखा है कि ज्ञानी पुरूष जल में भिन्न कमल की तरह रहते है तो क्या कोई ऐसे होते नही है? किनके लिए लिखा है? न रहे जल में भिन्न कमल की भांति, खूब आसक्ति रक्खे तो उससे पूरा पड़ जायगा क्या? मरते हुए जीव को दो चार आदमी पकड़े रहें तो जीव रूक जायगा क्या? अथवा कोई कितनी ही मिन्नते करें कि ऐ जीव! तुम अभी मत जाओं तो क्या वह रूक जायगा? उसका क्या हाल होगा? बहुत मोह किया हो जिसने, वह भी क्या रूक सकता है? मोह का कैसा विचित्र नशा है कि अपने आत्मा की जो निरूपम निधि है, ज्ञानानन्दस्वरूप है उस स्वरूप को तो भुला दिया और बाहृापदार्थो में रत हो गया, समय गुजर रहा है बहुत बुरी तरह से । शुद्ध ज्ञान हो, सच्चा ज्ञान बना रहे तो वहाँ कोई क्लेश हो ही नही सकता। जब यथार्थ ज्ञान से हम मुख मोड़े है और अज्ञानमयी भावना बनाते है तब क्लेश होता है। __ आत्मप्रभाव के लिए संकल्प - जो कर्मो से घिरा हुआ है, जिस पर कर्म प्रबल छाये है, बडी शाक्ति के कर्म है ऐसे जीव पुनः कर्मो का संचय करते है, और जिनके कर्म शिथिल हो गये, ज्ञान प्रकाश जिनका उदित हो गया है ऐसे ज्ञानी पुरूष ज्ञानानन्दस्वरूप में आनन्दमय निज स्वभाव में स्थित रहा करते है। कर्म कर्मो को बढाये, जीव जीव का ही हित चाहे, ऐसी बात जानकर है मोक्षार्थी पुरूषो! जब कर्म अपनी हठपर तुले हुए है तब हम मुक्ति से प्रीति क्यों नही करते, क्यों संसार की भटकना, क्लेश, इनमें ही प्रीति करते है? कर्मो ने ऐसी हठ बनायी है तो हम अपने स्वभाव विकास की हठ बनावें ना? कर्म या चलते है चले। कर्म क्या करेंगे? कुछ धन नष्ट हो जायगा, या जीवन जल्दी चला जायगा या यश्ज्ञ नष्ट हो जायगा। इन तीन बातो के सिवाय और क्या हो सकता है, सो बताओ? शुद्ध ज्ञानरूप साहस - भैया ! अन्तरंग में परमप्रकाश्ज्ञ पावो। धन चला जाय तो चला जाय, वह दूर तो रहता ही था और दूर चला गया। कहाँ धन आत्मा में लिपटा है? वह तो दूर-दूर रहता है। यह धन दूर-दूर तो रहता ही था और दूर हो गया। इस घर में न रहा, किसी और घर में चला गया। जो धन है उसका बिल्कुल अभाव कहाँ होगा? जो इस मायामयी दुनिया में अपना झूठा पर्याय नाम नहीं चाहते है उन पुरूषो को यश बिगड़ने का क्या कष्ट होगा ? हाँ अपने आप में कोई दुर्भावना न उत्पन्न हो फिर तो वह मौज में ही है, उसकी शान्ति को किसने छीना है ? ऐसा साहस बनावो कि दो-एक नही, सारा जहान भी मुझे न पहिचाने, अगर अपयश गाता फिरे तो सारा जहान गावे उससे इस अमूर्त आत्मा को कौन सी बाधा हो सकती है ? सत्यमेव जयते। अंत मे विजय सत्य की ही होती है। यदि शुद्ध परिणाम है, शुद्ध भावना है तो इस जीव का कहाँ बिगाड़ है, कर्म क्या करेगे 131
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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