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________________ लोकयुक्तता - संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि जो बलवान होता है वह दूसरे को अपनी ओर खीच लेता है। जब कर्म बलिष्ठ होगा तो वह अनेक कर्मो का आकर्षण कर लेगा और जब जीव बलिष्ठ होता तो यह जीव अपने स्वभाव का विकास कर लेगा । अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए सभी पदार्थ उद्यत है। ये कर्म उदय में आते है तो कर्मो के उदय के निमित्त से जीव में क्रोधादिक कषाये उत्पन्न हाती है और उन कषाय भावों के निमित्त से कर्मो का बन्धन होने लगता है। फिर उनका उदय आता है। जीव के भाव बिगड़े, नवीन कर्म बँधे, इस तरह से यह संतति चलती रहती है। इन कर्मों ने इस प्रकार से कर्मो की संतति बढ़ायी है । जीव और कर्म में निमित्त नैमित्तिक सम्बंध होने पर भी स्वतंता जीव में और कर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । जीव के भाव का निमित्त पाकर कर्मो का बन्धन होता है। अर्थात् कार्माणवर्गणाएँ स्वंय ही कर्म रूप से प्रवृत्त हो जाती है, और कर्मो का उदय होने पर यह जीव स्वंय रागादिक भावों में प्रवृत्त हो जाता है। ऐसा इन दोनो में परस्पर में निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है, फिर भी किसी भी पदार्थ का परिणमन किसी अन्य पदार्थ में नही पहुँचता है। जैसे यही देख लो बोलने वाला पुरूष और सुनने वाले लोग इन दोनो को परस्पर में निमित्तनैमित्तिक सम्बंध है। बोलने वाले का निमित्त पाकर सुनने वाले शब्दो को सुनकर और उनका अर्थ जानकर ज्ञानविकास करते है, यो उनके इस ज्ञानविकास में कोई वक्ता निमित्त हुआ और वक्ताको भी श्रोताओ को निरखकर धर्मचर्चा सुनाने की रूचि हुई। ये कल्याणार्थी है ऐसा जानकर वक्ता उस प्रकार से अपना भाषण करता तो यों वक्ता को बोलने में श्रोतागण निमित्त हुए और श्रोतागणो के सुनने और जानने में वक्ता निमित्त हुआ। ऐसा परस्पर में निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है । फिर भी वक्ता श्रोतावो में कुछ परणिमन नही किया और श्रोताओ ने वक्ता में कुछ परिणमन नही किया। ऐसे निमित्तनैमित्तिक सम्बंध का यथार्थ मर्म तत्वज्ञानी पुरूष जानता है। — निमित्तनैमित्तिक चक्र में जीव का कल्याण - इस निमित्तनैमित्तिक भाव के चक्र में यह जीव अनादि काल से संसार में जन्म मरण करता चला आ रहा है। इस पर कैसी मोहनी धूल पड़ी है अथवा इसने मोह की शराब पी है कि इसे जो कुछ आज मिला है, जिन जीवों का समागम हुआ हे, जो धन वैभव साथ है यह उसको अपना सब कुछ मानता है, यही मेरा है। अरे न तेरे साथ कुछ आया और न तेरे साथ जाएगा। ये तो तेरी बरबादी के ही करण हो रहे है। उनका निमित्त करके, आश्रय करके उनको उपयोग का विषय बनाकर अपनी विभाव परिणति रच रहे है, क्या कल्याण किया उन समागमों के कारण ? कुछ भी कल्याण नही किया, लेकिन यह मोही जीव कूद-कूदकर सबको छोड़कर केवल इने गिने दो चार जीवो को अपना सब कुछ मान लिया। कितना लाखों का धन कमाया, वह किसके लिए है? केवल उन्ही दो चार जीवो के आराम के लिए। उसकी दृष्टि में जगत 130
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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