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? इन तीन पर ही तो ये कर्म आक्रमण कर सकते है। ज्ञानी पुरूष को इन तीन की भी कुछ परवाह नही होती है।
यश अपयश के क्षोभ से विरक्त रहने में भलाई आत्मा का कल्याण तब होता है जब यह समस्त परविषयक विकल्पो को तोड़कर केवल शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र अपना अनुभव बताता है ऐसा करने में उसने समस्त यश अपयश को छोड़ ही तो दिया। अपयश होने में जो बुराई है वही बुराई यश मे भी है। अपयश से तो यह जीव दुःख मानकर संक्लेश करता है और पाप का बंध करता है और यश होने पर यह जीव रौद्र आशय बनाता है, रौद्रानन्दी बन जाता है, उसमे क्रूरता, बहिर्मुखता बढ़ती जा रही है और उसमें जो संक्लेश हुआ, जो कलुषता बनी, बहिर्मुख दृष्टि बढ़ी, उनके निमित्त से जो कर्मो का बंध हुआ उनके उदयकाल में क्या दुर्गति न होगी ? जितना बिगाड़ अपयश से हे उतना ही बिगाड़ यश से है। अज्ञानी जीव को तो सर्वत्र विपदा है। वह कही भी सुख शान्ति से रह ही नही सकता । ज्ञानी जीव को सर्वत्र शान्ति है, उसे कोई भी वातारण स्वरूप से विचलित नही कर सकता है, अज्ञानी नही बना सकता है।
मूढ़ता में क्लेश होने की प्राकृतिकता पर दृष्टान्त – कोई उद्दण्ड पुरूष हो और उसे हर जगह क्लेश मिले तो उसका यह सोचना व्यर्थ हे कि अमुक लोग मेरे विलोधी है और मुझे कष्ट पहुँचाते है। अरे कष्ट पहुँचाने वाला कोई दूसरा नही है। खुद ही परिणाम बिगाड़ते है और कष्ट में आते है। कोई एक बुद्विहीन मूर्ख पुरूष था। उसे लोग गाँव में मूरखचंद बोला करते थे। वह गाँव वालो से तंग आकर घर छोड़कर गाँव से बाहर चला गया, रास्ते में एक कुँवा मिला, वह उस कुंवे की मेड़ के ऊपर कुंवे में पैर लटकाकर बैठ गया। कुछ मुसाफिर आए और बोले कि अरे मूरखचंद कहाँ बैठे हो ? तो वह पुरूष उठकर उन मुसाफिरो के गले लगकर बोलता है भाई, और भई सो भई पर यह तो बताओ कि तुमको किसने बताया कि मेरा नाम मूरखचंद है ? मुसाफिर बोले कि हमको किसी ने नही बताया, तुम्हारी ही करतूत ने बताया कि तुम्हारा नाम मूरखचंद है।
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क्लेश का कारण मोह इस संसार में जो जीव दुःखी है वे मोह की उद्दण्डता से दुःखी है, किसी दूसरे का नाम लगाना बिल्कुल व्यर्थ है कि अमुक ने मुझे यो सताया । व्यर्थ की कल्पनाएँ करना बेकार बात है। मैं स्वयं ही अज्ञानी हूँ इस कारण अज्ञान से ही क्लेश हो रहे है। संसार की स्थिति किसी ने अब तक क्या सुधार पायी है? बड़े- बड़े महापुरूष हुए जिनके नाम के पुराण रचे गए है, पुराणो मे जिनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है उन्होने भी तो स्वांग रचा था, घर बनवाया, गृहस्थी बसायी, बाल बच्चे हुए, राजपाठ हुआ, युद्ध भी किया, सारे स्वांग तो रचे उन्होन भी, क्या संसार की इस स्थिति को पूरा कर पाया ? वैसी ही चलती गाड़ी बनी रही। कुछ दिन घर रहे, फिर छोड़ा कोई तप करके मोक्ष गए, कोई स्वर्ग गए, कोई बुरी वासना में मरकर नरक गए। सबका विछोह हुआ, लो कही का