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आपमें अपनेको एकाग्र कर लें। इस विधिसे यदि हमारा ज्ञानप्रकाश बढ़ेगा तो भोग अरूचिकर लगेंगे और यह ज्ञानका अनुभव ही रूचेगा। सब असार है, हेय है, एक अपना आत्मा ही सार है, उसको जानो यही धर्म है बतावो धर्ममें कहां मजहब है? यह अमुक धर्म है, यह अमुक धर्म है ऐसा मजहबोका कहां भेद है? आत्मा जब एकस्वरूप है तो धर्म भी एक स्वरूप है। आत्माका धर्म आत्मामें मिलेगा अन्यत्र न मिलेगा, सो अपने आत्मस्वरूपको सम्हालना यही एक धर्म है और इस धर्मके पालन से संसारके संकट नियमसे कटेंगे। एक सारभूत बात यहां कही है कि ऐसा ज्ञान बढ़ावो कि आपको भोग विषय भी रूचिकर न लगे।
निशामयति निःशेषमिन्द्रजालोपंम जगत्।
स्पृहयत्यात्मलाभय गत्वान्यत्रानुतप्यते।।39 ।। जगत् इन्द्रजालेपमता - योगी जन इस समस्त जगत को इन्द्रजालकी तरह समझकर इसे दूर करते है और आत्माकी प्राप्तिके लिए स्पृहा रखते तथा आत्मलाभके सिवाय अन्य किसी भावमें उपयोग कुछ चला जाय तो उसका बड़ा करते है। इस श्लोकमें तीन बातोपर प्रकाश डाला है, प्रथम तो इस समस्त जगतको इन्द्रजालकी तरह निरखता है, इन्द्रजालका क्या अर्थ है? लोकमें तो ऐसी रूढ़ि है कि जैसे बोई तमाशगीर चीज तो कुछ नही है और लोगो को दिखाये, उसको इन्द्रजाल मानते है, यह भी अर्थ लगा लो तो भी कुछ हानि नही है क्योकि जो कुछ दीखता है वह परमार्थमें ऐसा है ही नही, औश्र माही जीवको यही परमार्थ और सत्य नजर आता है, इस कारण यह भी अर्थ ले लो पर इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जो कुछ यहां दृश्यमान है यह सब इन्द्रका जाल है इन्द्र मायने आत्मा। उस आत्मा की विकार अवस्था होने से जो कुछ परिणमन होता है उससे जो कुछ यह सारा जाल बिछा हुआ है यह इन्द्रजाल है। अंलकार न लेना कि यह आमूल इन्द्रजाल ही है यह सब कुछ। यह आत्माका जाल है।
इन्द्रका जाल - यह प्रभु जो अनादि अनन्त अहेतुक अन्तः प्रकाशभाव है, प्रत्येक जीव में विराजमान है। जीवो का जो स्वभाव है वही तो प्रभु है वह प्रभु पर्यायमें जकड़ा है, विकृत होकर जब यह अपना जाल फैलाता है तो इसका जाल भी बड़ा विकट है। यह प्रभु इतना समर्थ है कि सुधारका भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है और विकारका भी बड़ा विकट चमत्कार दिखाता है। कोई वैज्ञानिक किसी भी प्रकार ऐसा इन्द्रजाल बना तो दे। उसमें इतनी सामर्थ्य नही है। भले ही वह अजीव पदार्थो को परस्परमें सम्बद्व करके एक निमित्तनैमित्तिक पद्वति में कुछ असर दिखा दे। किन्तु इन्द्रजाल नही बना सकता है। तो यह योगी सर्वत्र इन्द्रजाल देखता हे, इन्द्रका स्वरूप नही हे यह, किन्तु इन्द्रका जाल है, इसी कारण वह किसी भी इन्द्रजालमें रमता नही है।
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