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जीव जुदा है, पुद्गल जुदा है। इतना ही मात्र तत्व का संग्रह है, इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ कहा जाता है वह सब इसी तत्व का विस्तार है।
___ मूल में सत्स्वरूपता - मूल में तत्व सन्मात्र कहा गया है। जो है वह तत्व है, इस दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे समस्त पदार्थ सत्रुप है और इस ही दृष्टि को लेकर अद्वैतवादों की उत्पत्ति होती है। कोई तत्व को केवल एक सद्बा मानते है, कोई तत्व को केवल शून्य मात्र मानते है, कोई ज्ञानमात्र, कोई चित्रोद्वैतरूप। नाना प्रकार के इन अद्वैतवादों की एक इस सद्भाव से उत्पत्ति हुई है, और इस स्थिति से देखो तो कोई भी पदार्थ हो, प्रत्येक पदार्थ है, है की अपेक्षा सब समान है। जैसे मनुष्य की अपेक्षा बाल, जवान, बूढ़ा किसी भी जाति कुलका, देश का हो सबका संग्रह हो जाता है और जीव की अपेक्षा से मनुष्य हो, पशु हो, कीट हो सबका संग्रह हो जाता है और सत् की अपेक्षा जीव हो अथवा दिखने वाले ये चौकी, भीत आदि अजीव हो सबका सग्रह हो जाता है।
विशेष से अर्थक्रिया की सिद्वि - सत् की दृष्टि समस्त अर्थो के समान होने पर भी अर्थ क्रिया की बात देखना आवश्यक है। काम करने की बात है, प्रत्येक पदार्थ है और वे सब कुछ न कुछ काम कर रहे है, उनमें ही परिणमन हो रहा है। और इस अर्थक्रिया की दृष्टि से जितने भी पदार्थ है वे सब एक अपने-अपने स्वरूप में अपना एकत्व लिए हुए है। जैसे गौ जाति और न्यारी-न्यारी गौये। गऊ जाति से दूध नही निकलता किन्तु जो व्यक्तिगत गौ है उससे दूध निकलता है। जाति तो काम करने वाले अर्थक्रिया से परिणमने वाले, पदार्थ के संग्रह करने वाले धर्म का नाम है। जो ऐसी-ऐसी अनेक गौये है। उनका संग्रह गौ जाति में होता है। तो वास्तव में पदार्थ अनन्तानन्त तो जीव है, अनन्तानन्त पुद्गल है, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य औश्र असंख्यात कालद्रव्य है। उन सबका सत्वधर्म से संग्रह हो जाता है।
जीव और पुदगलों की अनन्तता - जीवद्रव्य अनन्त है, इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक जीव अपने में अपना ही परिणमन करता है। एक परिणमन जितने में समाये और जितने से बाहर कभी न जाय उसको एक पदार्थ बोला करते है। जैसे मेरा सुख दुःख मेरी कल्पना आदिक रूप परिणमन जितने में अनुभूत होता है। और जिससे बाहर होता ही नही है उसको हम एक कहेंगे। यह मै एक हूं, ऐसे ही आपका सुख दुःख रागद्वेष समस्त अनुभव आप में ही परिसमाप्त होते है सो आप एक है। इस प्रकार एक एक करके अनन्त जीव है, लेकिन सभी जीवों का मूल स्वरूप एक समान है। अतः सब जीव एक जीव जाति में अंतर्निहित हो जाते है। पुद्गगल भी अनन्त है जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाए, उसे पुद्गल शब्द में यह अर्थ भरा है- पुद् मायने जो पूरे और गल मायने जो गले। जहाँ मिल-जुल कर एक बड़ा रूप बन सके और बिखर बिखरकर हल्के क्षीण रूप हो जायें
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