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इसके धारण के पात्र रह सके। प्रथम कर्तव्य यह है कि सम्पदा को भिन्न, असार, नष्ट होने वाली जानकर इस सम्पदा के खातिर अन्याय करना त्याग दे। कोई भी ऊँची बात मुझे पुरूषार्थ बिना मिलेगी कैसे? और कुछ उससे नुकसान भी नही है, तो हम अन्याय त्याग दे। क्योकि जगत में जीवन के आवश्यक पदार्थो का समागम पुण्योदय के अनुसार सहज सुगमतया मिलता रहता है। अन्याय से सिद्वि नही होती। अन्याय वह है जिसे अपने आपपर
कते है कि जो बात अपने को बुरी लगती है वह बात दूसरो को भी बरी लगती है, उसका प्रयोग दूसरो पर करना अन्याय है। ऐसा जानकर उसका प्रयोग दूसरों पर न करे, यही है अन्याय त्याग। हमारे बारे में कोई झूठ बोले, हमारी चीज चुरा ले, हमारी माँ बहिन पर कोई कुदृष्टि डाले तो हम को बुरा लगता है, तो हम भी किसी का दिल न दुखावे, किसी की झूठ बात मब कहें, किसी की चीज न चुराये, किसी परस्त्री पर कुदृष्टि न करें और तृष्णा का आदर न करें। बतावो क्या कष्ट है इसमें? इसमें न आजीविका का भंग होता है और न आत्महित में बाधा आती है।
अन्याय व मिथ्यात्व के त्याग का अनुरोध - भैया ! अन्याय का त्याग और मिथ्या श्रद्वान का त्याग करो। पर से हित मानना, कुदेव, कुशास्त्र, कुगूरू में रमना, अपने आपको सर्व से विविक्त न समझ पाना – ये सब मिथ्या आशय है। ज्ञानप्रकाश करके इस मिथ्या आशय का भी त्याग करें और अभक्ष्य पदार्थ न खाये, ज्ञानार्जन में रत रहे, अपनी आजीविका बनाये रहें और इस शुद्वज्ञान के पालने में भी लगें। तुम्हे क्या कष्ट है इसमें? कौन सा नुकसान पड़ता है? व्यर्थ की गप्पों में और काल्पनिक मौजो की चर्चावों में समय खाने से कुछ भी हाथ न लगेगा।
एक ज्ञानस्वरूप की घुनि की आवश्यकता - इस ज्ञानार्जन से शान्ति व संतोष मिलेगा। इससे इस ज्ञानज्योति के अर्जन में, इसकी चर्चा में अपना समय लगाये। इससे ही अपना सम्बन्ध बनाएँ। जैसे कोई कामी पुरूष जिस किसी परस्त्री पर आसक्त हो गया हो या किसी पर कन्या पर जैसे कि पुराणो में भी कितने ही मोहियों की चर्चा सुनी है, तो वह पूछेगा तो वही बात, जानेगा देखेगा तो वही बात, अकेले में भी भजन बोलेगा तो वही। कैसी जाती है। वह पूछेगा, चाहेगा तो एक ज्ञानस्वरूप को। हम आपका भी यही कर्तव्य है कि इस ज्ञानस्वरूप का आदर करें और संसार संकटो से सदा के लिए छुटकारा पायें।
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्वसंग्रहः।
यदन्यदुच्यतें किञिचत्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः । 150 || संक्षिप्त तत्वसंग्रह - ग्रन्थ समाप्ति से पहिले विचरम श्लोक में यह बताया जा रहा है कि समस्त प्रतिपादित वर्णनो का सारभूत तत्व क्या है? हमें यह पूर्ण ग्रन्थ सुनने पर शिक्षा लेने योग्य बात कितनी ग्रहण करनी है, यह जानना है, वही कहा जा रहा है कि
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