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________________ आत्मतत्वकी आद्यन्तविमुक्तता - यह अन्तस्तत्व परभाव भिन्न है वह आपूर्ण है, इतने पर ये निर्णय मत कर बैठना कि जो पर नही है, परभव नही है ओर पूरा है वह मेरा स्वरूप है। यो तो केवल ज्ञानादिक शुद्ध विकास भी मेरा स्वरूप बन जायेगे। वे यद्यपि स्वरूपमें एक तान हो जाते है और मेरे स्वरूपके शुद्ध विकास है, परन्तु केवलज्ञान आदिक विकास सादि है, क्या उनके पहिले मै न था? स्वरूपका निर्णय तो यथार्थ होना चाहिए, सो यह भी साथ में जानना कि वह आदि अन्तरहित तत्व है जिसका आलम्बन लिया जा रहा है शुद्वनयमें। आत्मतत्वका एकत्व व निर्विकल्पत्य – गुरूने शिष्य से पूछा – क्यों ठीक समझमें आ गया, यह शिष्य बोला – हाँ, वह परसे भिन्न है, परभावसे भिन्न है, परिपूर्ण है और शाश्वत है। ये ही तो है ज्ञान, दर्शन, श्रद्वा, चारित्र, आनन्द आदिक गुण। योगी समझता है कि नही-' नही अभी तुम अनुभवके मार्गसे बिछुड़े जा रहे हो, वह इन नाना शक्तियोके रूप में नही है, वह तो एक स्वरूप है। शिष्य कहता है कि अब पहिचाना है कि ब्रह्मा एक है। तो गुरू कहता है कि ब्रह्मा एक है ऐसा ध्यान तू बनायगा तो तूने अपना आश्रय छोड़ दिया है। तू कही परक्षेत्रमें यह एक है ऐसा विकल्प मचायगा, वहाँ भी इस ज्ञानतत्वका अनुभव नही ह। समस्त विकल्पजालोको छोड़कर इस तत्वका तू अनुभवमात्र कर । इसके बारेमें तू जीभ मत हिला। जहाँ कुछ भी जीभ हिलायी, प्रतिपादन करने को चला कि तेरा यह आनन्द रसज्ञानानुभव सब विघट जायगा। नयपक्षातीत स्वरूपानुभव - यह योगी योगे में परायण होता हुआ अपने देह तक को भी नही जान रहा है। वह तो परम एकाग्रतासे अपने अकिञचन शुद्ध स्वरूपका ही अवलोकन कर रहा है। जो अपनी इच्छासे ही उछल रहे, जो अनेक विकल्पजाल तत्वज्ञानके सम्बन्धो भी हो रहे है, जिससे नय पक्षकी कक्षा बढ़ रही है उनका ही उल्लंघन करके निज सहजस्वरूपको देखता है, जो सर्वत्र समतारससे भरा हुआ है, उसे जो प्राप्ता करता है वह योगी है, धर्ममय है। अपनी समस्त शक्तियो इधर उधर न फैलाकर अपने आपके सहज स्वभावमें केन्द्रित करके अपने उपयोगको एक चिन्मात्र स्वभावमें स्थिर कर देता है वहाँ हेय और उपादेय का कोई भी विकल्प उत्पन्न नही होता है। उपयोगकी अन्तर्मुखता एंव आनन्द - जैसे यह उपयोग बाहरमें जाया करता है वैसे ही इसको क्या अपने आपमें लाया नही जा सकता है? जो उपयोग बाहरी पदार्थो के जानने में सुभट बन रहा है वह क्या अपने आपके स्वरूपको जाननेमें समर्थ नही हो सकता है? परपदार्थो में हित बुद्विको छोड़कर अपने आपमें विश्राम लेकर अपनेको जाने तो वहाँ वीतराग भावका रसास्वादन हो सकेगा। योगी इसी परमतत्वका निरन्तर आनन्द भागता रहता है। 188
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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