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________________ तत्वज्ञान का आदर - भैया! जब तक एक ज्ञान का प्रकाश नही हो सकता तब तक आत्मा में शान्ति आ ही नही सकती। इस कारण यह कर्तव्य है कि इम स्व और पर का यथार्थ विवेक बनाएँ। मेरा आत्मा समस्त परपदार्थो से न्यारा ज्ञानानन्दस्वरूप है, ऐसा भान जिन संतो के रहा करता है ये ज्ञानी योगी पुरूष है। सब दशाओ में ज्ञान ही तो मदद देता है। धन कमा रहे हों तो वहाँ भी क्या ज्ञान बना रहकर, भोपना करके व्यापार का काम बन जायगा? वहाँ भी ज्ञानकला का ही प्रताप चल रहा है। किसी भी प्रकार की जो कुछ भी श्रेष्ठता है वह सब ज्ञान की कला के प्रताप से है। इस तत्वज्ञान का आदर करो, यही सहाय है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी जगत में सहाय नही है। जो जीवन में ज्ञानी होता है वह मरते समय भी अपनी ज्ञानवासना के कारण प्रसन्न रहता है। जगत का खेल - अहो कैसा है यह जगत का खेल, पहिले बनाया जाता और फिर मिटाना पड़ता। जैसे बच्चे लोग मिट्टी का भदूना बनाते हे बाद में बनाकर बिगाड़ देते है, अपना समय उस खेल में व्यर्थ गंवाते है ऐसे ही रागी मोही जन किसी काम को बनाते है तो वह भी क्या सदा तक बना रह पाता है? वह भी बिखर जाता है। तो क्या बुद्धिमानी हुई, बनाया और बिगाड़ा। बनानो में तो इतना समय लगा और बिगाड़ने में कुछ भी समय न लगा। जिन्दगी भर तो इतना श्रम किया और अंत में फल कुछ न मिला तो ऐसे व्यवसाय से, परिश्रमसे कौन सा अपने आपके आत्मा का लाभ उठाया? ___व्यवहार से लाभ- भैया ! सब हिम्मत की बात है। जो पुरूष इतना तक समझने के लिए तैयार रह सकता है कि मैं तो इस इनिया के लिए मरा हुआ ही हूं, मै इन मायामयी मोहीप्राणियो से, इन मोही मायामयी समागमों से मैं कुछ नही कहलवाना चाहता हूँ, मै अपने आप में ही प्रसन्न हूं, इतना साहस यदि किया जा सकता है तब धर्म पालन की बात बोलना चाहिए अन्यथा सब एक पार्ट अदा किया जा रहा है। जैसे दूकान किया, ऐसे ही पूजन भी किया, यह सब तफरी है एक तरह की। जिसको ज्ञान की दृष्टि नही है, जिसने अपना लक्ष्य विशुद्व नही बना पाया है उनका दिल बहलावा है। खोटे-खोटे कामों में ही बहुत समय तक रहने पर फिर दिल नही लगता है, ऊब जाता है, अब उस दिल को कहाँ लगाये? तो कुछ यहाँ व्यवहार धर्म की बाते भी बना ली। व्यवहार धर्म की बाहा सहायकता - व्यवहार धर्म बुरा नहीं है, हमारी भलाई में सहायक है, पर जैसे हमारी भलाई हो सकती है उस प्रकार की दृष्टि बनाकर व्यवहार धर्म को करें तब ही तो भलाई हो सकती है जो पुरूष अपने को सबसे न्यारा अकिञचन केवल ज्ञानानन्द स्वरूप निहारेगा उसको त्रवि सिद्वि होगी और जो बहिर्मुखदृष्टि करके अपना उपयोग, बिगाड़ेगा, भले ही पूर्वजन्म के पुण्य के प्रताप से कुछ जड़ विभूति मिल जाय किन्तु उसने किया कुछ नही है, आगे वह दुर्गति का ही पात्र होगा। इससे रागद्वेष न हो, ज्ञानप्रकाश बने ऐसा उद्यम करना इसमें ही हित की बात होगी। 157
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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