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________________ प्राप्त बल का आत्महित में सदुपयोग - जब तक आँखे काम दे रही है, जब तक इन आँखो से देखना बन रहा है तब तक स्वाध्याय करके, ज्ञान सीखकर क्यो न सदुपयोग कर लिया जाय? जब कदाचित् मान लो आँखो से दिखना बंद हो जाय तब क्या किया जाएगा? ज्ञानार्जन का उपाय फिर ज्यादा तो न किया जा सकेगा। भले ही बहुत कुछ सीखा हो तो ध्यान करके ज्ञान का फल पा सके। लेकिन जब तक ये इन्द्रियां सजग है, समर्थ है तब तक इनका सदुपयोग कर ले। कानो से जब तक सुनाई दे रहा है तो तत्व की बात सुनें ना, ज्ञान की बात वैराग्य की बात सुनें ना, महापुरूषो के चारित्र की बात सुने, जिनके सुनने से कुछ लाभ होगा। जब तक बोलते बन रहा है जीभ ठीक चल रहीर है तब तक प्रभुभक्ति गुणगान स्तवन कर लें ना। जब बल थक जायगा, कुछ बोल न सकेगें, जीभ लड़खडा जायगी फिर क्या कर सकेगे? जब तक शरीर में बल है, हाथ पैर चलते है तब तक गुरूओ की सेवा कर ले ना। जब स्वयं ही थक जायेगे, उठ ही न सकेगे फिर क्या किया जा सकेगा? जब तक यह बल बना हुआ है इस बल का उपयोग धर्म साधना के लिए करना चाहिए। धर्म साधना - धर्म साधना मोह राग द्वेष उत्पन्न न हो, इसमें ही है। इसकी सिद्धि के लिए योगी पुरूष एकांत स्थान में रहने का अभ्यास करते है। एकात निवास आत्मस्वरूप की बड़ी साधना है। एंकात निवास में जब रागद्वेष के साधन ही सामने नही है तो प्रकृति से इसके चित्त पर स्फूर्ति जाग्रत होती है। जब तक हेय और उपादेय पदार्थ का परिज्ञान न होगा तब तक कैसे आत्मस्वरूप का अभ्यास बन सकता है? सबसे बड़ी दुर्लभ वस्तु है तो ज्ञान है। धन, कन, कंचन, हाथी, घोड़ा दुकान वैभव ये कोई काम न आयेगें, पर अपना आत्मज्ञान एक बार भी प्रकट हो जाए तो यह अचल सुख को उत्पन्न कर देगा। इसलिए करोड़ो बातो मे भी प्रघान बात यह यही है कि अनेक उपाय करके एक ज्ञानार्जन का साधन बना ले। विनाशीक वस्तु से अविनाशी तत्व के लाभ का विवेक - यदि नष्ट हो जाने वाली चीज का व्यय करके अविनाशी चीज प्राप्त होती है तो इसमें विवेक ही तो रहा। यह वैभव धन खर्च हो जाता है त्याग हो जाता है और उस त्याग और व्यय करने से कोई हमं कुछ ज्ञान की सिद्धि होती है, दृष्टि जगती है तो ऐसी उदारता का आना लाभ ही तो है, अन्यथा तृष्णा में कृपणता में होता क्या है कि वियोग तो सबका होगा ही, इसमें ज्ञान से सूना-सूना रहने के कारण अंधेरी छायी रहेगी, दुःखी होगे। कृपण पुरूष के कितनी विपत्ति है, इसका ज्ञान कब होता है जब कोई लुटेरे लूट ले, धन नष्ट हो जाय, तो लोगो को विदित होता है कि इसके पास इतना कुछ था। बताओ कौन सा लाभ लूट लिया राग की आसक्ति में और मोह ममता में? 156
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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