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________________ नही, हमें अलग हो जाने दो। तो यह मोह और पक्ष की बातें अच्छी नहीं होती है। अपनी आत्मा को पहिचानो और सबको एक समान मानो । हृषीकजमनाततंकं दीर्घकालोपलालितम् । नाके नाकौकसां सोख्यं नाके नाकौकसामिव | 15 || व्रत के फल में स्वर्गीय सुख इससे पहिले श्लोक में यह बताया था कि जिस तत्व में दिया हुआ भाव मोक्ष को भी दे देता है तब उससे स्वर्ग कितना दूर रहा अर्थात् स्वर्ग तो बिल्कुल ही प्रसिद्ध है, ऐसी बात सुनकर कोई जिज्ञासु यह प्रश्न करता है कि उस स्वर्ग में बात है क्या? लोग स्वर्ग की बात ज्यादा पसंद करते है। कभी धर्म की भावना होती है तो स्वर्ग तक ही उनकी दौड़ होती है। धर्म करो स्वर्ग मिलेगा, उस स्वर्गकी बात उपसर्ग के सुख इस श्लाके में संकेत रूप के कहे जा रहे है । अध्यात्म में तो स्वर्गसुख हेय बताये गए है, किन्तु व्रत का आचरण करने वाले पुरूष मोक्ष न जायें तो फिर जायेगें कहाँ, उसे भी तो बताना चाहिए। मोक्ष न जा सके, थोड़ी कसर रह गयी भावो में तो उसकी फिर क्या गति है, उसका भी बनना आवश्यक है। जो मोक्ष न जा सका, थोड़ी कसर रह जाय शुद्वि में तो सर्वार्थसिद्वि है । विजय, वैजयतं, जयंत व अपराजित ये तो सर्वार्थ सिद्धि है, अनुत्तर है, अनुदिश है, ग्रैवेयक हैं और नही तो स्वर्ग तो छुड़ाया ही किसने है ? व्रत की नियामकता जो व्रत धारण करता है, चाहे श्रावक के भी व्रत ग्रहण करे, मुनि व्रत ग्रहण करे, व्रत ग्रहण करने के बाद देव आयु ही बँधती है दूसरी आयु नही बधंती। व्रती पुरूष मोक्ष जाय या देव में उत्पन्न हो । और व्रत ग्रहण करने के पहिले यदि अन्य आयु बंध गयी है नरक, तिर्यच मनुष्य तो उसके व्रत ग्रहण करने का परिणाम भी नही हो सकता है। अन्य आयु के बँधने पर सम्यक्त्व तो हो सकता है पर व्रत नही हो सकता है। अणुव्रत भी और महाव्रत भी उसके नही हो सकते जिसने नरक आयु, तिर्यच आयु या मनुष्य आयु में से कोई सी भी आयु बाँध ली है। और जिसने देव आयु बांध ली है या तो उसके व्रत होगा या जिसने कोई आयु नही बाँधी है परभाव के लिए, उसके व्रत होगा। व्रत धारण कितनी ऊंची एक कसौटी है कि जिससे यह परख हो जाय कि देव ही होगा या मोक्ष जायगा । तो ऐसी व्रत की वृत्ति हो तो उसके फल में क्या होता है, उसका वर्णन इस श्लोक में है । स्वर्गीय सुख का निर्देशन- स्वर्गो में क्या मिलता है, कैसा सुख है? उसके लिए कह रहे है कि देवों का सुख इन्द्रियजन्य है। ऐसा कहने में कुछ विशेषता नही जाहिर हुई, कुछ बड़प्पनसा नही आ पाया, इन्द्रियजन्य है, लेकिन जो इन्द्रियजन्य सुखके लोभी है उनको कुछ खटकनेवाली बात भी नही होती है । देवो का सुख आतंकरहित है। बाधा, आपदा, वेदना ये सब नही है, उन देवो को न भूख की बाधा होती है, न प्यास की बाधा होती है । हजारो वर्षो में जब कभी भूख लगती है तो कंठ से अमृत झर जाता है और उनकी तृप्ति हो जाती है। अमृत क्या चीज है, जैसे अपन लोग अपने मुँह का थूक गटक लेते है, इससे कुछ बढ़कर है, मगर जाति ऐसी ही होगी, हमारा ऐसा ध्यान है । जब कभी अपन बड़े सुख 15
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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