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________________ आग की ज्वाला बढेगी, ऐसे ही इन दन्द्रिय के विषयो के भोगो से भी कभी तृप्ति नही होती ज्यो ज्यो विषय मिले त्यो त्यों अतृप्ति होती है। संसार में सब जीव एक से दुःखी है, गरीब और अमीर दोनो एक से दुःखी है। उनके दुःख की जाति में थोड़ा अन्तर है, पर दुःख का काम क्या है? विहल बना देना। सो यह बात गरीब और अमीर दोनो में एक समान होती है। गरीब भूख के माने तड़फ पर विहल होता है तो अमीर लोग मानसिक वेदनावो में, ईर्ष्या तृष्णा की ज्वालावो में जलकर दुःखी रहते है। बल्कि गरीब के दुःख से अमीर के दुःख बड़े है। गरीब हार्ट फेल होने से मर जायें ऐसे कम उदाहरण मिलते है और हार्ट फेल होकर मर जाने वाले धनिको के उदाहरण अधिक मिलते है। देवोके भी भोग से तृप्ति का अभाव – कहाँ है सुख, सब एक तरह के दुःख है। मनुष्यो की बात तो दूर जाने दो, देवता लोग जिनको भूख प्यास का संकट नही, जिन्हे खेती दुकान आदि का आरम्भ नही करना पड़ता है, मनमाने श्रृंगार, वस्त्र, आभूषण उन्हे मिले हुए है। जो चाहें वह वस्तु उनको तुरन्त हाजिर है, फिर भी वे दूसरो की ऋद्वियाँ देखकर, सम्पदा देखकर, वैभव देखकर दुःखी होते है। कोई हुकुम देकर दुःखी होता है तो कोई हुकुम मानकर दुःखी मानकर दुःखी होता हे। दुःखी दोनो समान है। उन देवो में जो देव हुकुम दिया करते है वे हुकुम देकर दुःखी रहते है और हुकुम मानने वाला भी अपनी कल्पना से दुःखी रहा करता है। ये भोग भोगते समय अतृप्ति उत्पन्न करते है। भोगवियोग में विक्षोभ – भोग भोग भी लिये जोये, पर जब इनका अंत होता है तो उस समय यह छोड़ना नही चाहता भोगों को और भोग छूटे जा ही रहे है। यह खुद मरता है तो सारा का सारा एकदम छूट रहा है। यह छोड़ना नही चाहता कोई क्या एक दमड़ी भी साथ ले जा सकता है, कहाँ ले जाता है? मनुष्य कमीज पहिने मर गया तो कमीज यही रह गयी जीव चला जाता है। कोई गद्दा तक्की पर पड़ा हुआ मर गया तो सब गद्दा तक्की यही धरे रह जाते है, जीव यो ही चला गया। सब चीजें यो ही छट जाती है। देखने में सब आता है, पर इस मोही जीव को इन भोगो के छोड़ने को साहस नही होता है। ज्ञानी पुरूष ही यह साहस कर सकता है कि सब कुछ जाता है तो जावो, ये मुझसे गये हुए तो पहिले ही थे। पहिले मै इनमें मिला ही कहाँ था? आदि, मध्य अंत तीनो ही अवस्थावों से किसी एक अवस्था में ही अगर भोगो से सुख मिलता होता तो चलो तब भी भोगो को अच्छा मान लिया जाय पर यहाँ तो सर्वत्र क्लेश ही क्लेश है सुख का तो नाम ही नही है। आरम्भ मे क्लेश, खेती करना, दुकान करना, शरीर का श्रम करना, इन्द्रिय और मन का कष्ट सहना वहाँ भी क्लेश ही है। भोग से तृष्णा का प्रसार – जब भोग भोगे जाते है, इष्ट भोगो की प्राप्ति होती है तो यह तृष्णा सर्पिणी की तरह चंचल होकर भोक्ता को अशान्त बनाए रहती है। जैसे-जैसे भोग भोगे जाते है यह तृष्णा शान्त हो जायगी, बढ़ती जाती है तुप्ति नही होती है। 58
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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