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________________ कदाचित् कोई सोचे कि इस इष्ट के भोगने से तृष्णा शान्त हो जायगी, तृष्णा शान्त होने से मै संतुष्ट हो जाऊंगा सो यह सम्भव नही है। कोई पुरूष ऐसा सोचे कि इस समय विषयो को भोगा, वेदना, पीड़ा, कषाय, शान्त हो जायगी, फिर आगे उपद्रव न रहेगा उसका सोचना झूठ है। अरे इसी समय भोगो से विरक्त हो तो शान्ति का मार्ग निकालोगे अन्यथा नही। ये भोग आखिर छूट ही तो जाते है, फिर भी इन भोगो से तृप्ति नही मानी जा पाती, संतोष नही हो पाता। आग में कितना ही काठ डालो तृण डालो, पर वह तृप्त नही हो सकती । कदाचित् अग्नि तृप्त हो जाय, पर यह मोही प्राणी भोगों से कभी तृप्त नही हो सकता। सैकड़ो नदियां मिल जाये तो भी समुद्र तृप्त नही होता, बल्कि वह बड़ा होता जायगा । समुद्र नदियो से तृप्त नही होता है। कदाचित् समुद्र भी तृप्त हो जाय लेकिन यह मनुष्य भोगो से तो कभी भी तृप्त नही हो सकता । विवेकी जनो की भोगो से उपेक्षा- जो मनुष्य मूढ़ है, हित अहित का जिनके विवेक नही है वे भोगो के भोगने के समय भोगो को सुखकारी मानते है और भोगो में ही प्रीति बढ़ाते है लेकिन जो निर्मल चित्त है, विवेकी है, परीक्षक है वे इन क्लेशकारी विनाशीक भोगो की और नही भागते किन्तु आत्महितकारी रत्नत्रय मार्ग की ओर ही प्रगति करते है कोइ यहाँ प्रश्न करने लगे कि बड़े बड़े विद्वान बुद्विमान भी तो विषयों को भोगते हुए देखे जाते है । यहाँ विषय शब्द से सभी इन्द्रियो का विषय होना है। भोजन भी आ गया, सुगधित चीजें भी आ गयी, रागरागिनी सुनना, सभी विषयो की बात है । कोई जिज्ञासा करे कि बड़े बड़े विद्वान लोग भी भोगो को भोगते रहे। पुराणो में भी भोगो के भोगने की कथा सुनी जाती है, फिर तुम्हारा यह उपदेश कैसे संगत होगा? ठीक है लिखा है पुराणो में। तो भी भोगो का तजना शूरो का काम है, आखिर उन महापुरूषो में भी अनेको ने आखिर भोगो को तज भी तो दिया है। और जब ये भोग भी रहे थे तो वे विवेकी सम्यग्दृष्टि संत पुरूष उस काल में यद्यपि गृहस्थावस्था में चारित्र मोहनीय के उदयवश भोगो को छोड़ने में असमर्थ रहे लेकिन तब भी उनके अंतरंग से राग न था । जिनके सम्यग्ज्ञान हो गया है, भ्रम नष्ट हो गया है उनको फिर भ्रान्ति नही होती। ज्ञानी के भोग से विरक्ति अज्ञानी पुरूष ही इन भोगो को हितकारी समझते है और आसक्ति से सेवते है । ज्ञानी पुरूष भोगो को विपदा मानते है, भोगना पड़ता है भोग, फिर भी अन्तर में यह चाह रहती है कि कब इनसे निपट जाये, छुट्टी मिले। जैसे कैदी जेलखाने में चक्की पीसता है, किन्तु उसको चक्की पीसने में अनुराग है क्या ? रंच भी अनुराग नही है। जैसे घर में महिलाएँ चक्की पीसने के लिए जगती है और गाकर चक्की पीसती है तो उनको चक्की पीसने में अनुराग है पर कैदी को रंच भी अनुराग नही है। उसे तो चक्की पीसनी पड़ती है। वह तो जानता है कि यह एक आपदा है, इससे मुझे कब छुट्ठी मिले। इसी प्रकार ये भोग विषय चक्की पीसने की तरह है। यह जीव इस समय कैदी हुआ - 59
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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