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________________ है, शरीर और कर्म के बन्धन में पड़ा है। वह जानता है कि ये आपदामय भोग मुझे भोगने पड़ रहे है किन्तु इनसे छुटकारा कब मिले, कैसे मिले, इस यत्न में भी वह बना रहता है। विवेकी और अविवेकी की दृष्टि का सुख भैया ! विवेकी और अविवेकी में बड़ा अन्तर है। दाल में कभी नमक ज्यादा पड़ जाय तो लोग क्या कहते है कि दाल खारी है। अरे यह तो बतलावो कि दाल खारी है कि नमक खारी है। जरा सी दृष्टि के फेर में कितने अर्थ का अन्तर हो गया है। समझदार जानते है कि इसमें जो खारापन है वह नमक का है । कही मूग, उड़द आदि नमकीन नही होते है। ऐसे ही यह ज्ञानी जानता है कि ये जितने रागद्वेष विषय है ये सब कल्पना के सुख है, ये मेरे रस नही है, मेरे स्वाद नही है। ये कर्मो दयजन्य विभाव है। इनमें वह शक्ति नही होती है। भोग के त्याग की भावना का परिणाम भैया ! पुराणो में जो चरित्र आए है भोग भोगने के, उनमें अंत में त्याग की भी तो कहानी है। उससे यह शिक्षा लेनी चाहिए कि ऐसे बड़े भोग भोगने वाले भी इन भोगो को छोड़कर शान्त हो सके है। जो विशिष्ट विवेकी पुरूष होते है वे आरम्भ से ही विषयो को बिना भोगे ही जीर्ण ऋण के समान असार जानकर छोड़ देते है। जैसे कपड़े में कोई जीर्ण तृण लगा आया हो, त्यागियों के पास आप बैठे हो और आपके कोट में कोई तिनका आ गया हो, चलते हुए रास्ते में आपको अपने कोट पर पड़ा हुआ तिनका दिख जाय तो आप उसे कैसा बेरहमी से बेकार जानकर फेंक देते है। तो जैसे जीर्ण तृण को इस तरह लोग फेंक दिया करते है ऐसे ही अनेक विवेकियों ने इस वैभव को भी जीर्ण तृण के समान जानकर शीघ्र ही अलग किया है। जो भोग तज देते है और आनन्दमय अपने आत्मस्वरूप में अपने को निरखते है उनका ही जीवन सफल है । भोग भोगने वाले का जीवन तो निष्फल गया समझना चाहिए । - तीन प्रकार के त्याग में जघन्य त्याग इन भोगो को कोई पुरूष भोगकर अंत में लाचार होकर त्यागते है और कोई पुरूष वर्तमान भोगों को भी त्याग देते है और कोई ऐसे उत्कृष्ठ होते है जो भोगने से पहिले ही उन्हे त्याग देते है। एक ऐसा कथानक चला आया है कि तीन मित्र थे। वे एक साथ स्वाध्याय करतें थे, उनमें एक बूढा था, एक जवान था और एक बालक किशोर अवस्था का था। तीनो में यह सलाह हुई कि अपने मे से जो कोई विरक्त हो वह दूसरे को आग्रह करता हुआ जाये और उन्हे भी सम्बोधे । उनमें से जो वृद्व महाराज थे उनके मन मे आया कि थोड़ा सा ही जीवन रहा है, अब विषय कषायो का त्याग कर धर्म सेना चाहिए। तो उस वृद्व ने एक साल तक इस बात का यत्न किया, जो सम्पदा थी, बहिन को, बुवा को, धर्मकाज में, भाइयों में, लड़को को जो कुछ बाँटना था उस बंटवारे मे 6-7 महीना समय लगाया। बाद में फिर उनकी व्यवस्था देखी कि हाँ सब लोग ठीक काम करने लगें, तब वह विरक्त होकर चलता I 60
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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