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कोई जाल यह ऐसा नही है जैसे लोहे के जाल हो, सूत के जाल हो, किसी भी प्रकार का जाल नही है इस जीव पर, मकड़ी के जाल बराबर भी सूक्ष्म कमजोर भी जाल नही हे, कोई जाल नाम की बात ही नही है किन्तु यह मोही जीव अपनी कल्पना में मोह का ऐसा जाल पूरता है कि उससे परेशान हो जाता है, तब उसे संसार में आधि व्याधि उपाधि सब लगी रहती है। आधि नाम तो है मानसिक दुःख का, व्याधि नाम है शारीरिक दुःख का और उपाधि नाम है परका, पुछल्ला लपेटे रहने का। यों यह जीव आधि व्याधि और उपाधि से दुःखी रहा करता है। उपाधि का अर्थ है जो आधि के समीप ले जाय। उसका अर्थ है समीप और आधि का अर्थ है मानसिक दुःख। जो मानसिक दुःख के समीप ले जाये। उसका अर्थ है समीप और आधि का अर्थ है मानसिक दुःख। जो मानसिक दु:ख के समीप ले जाय उसे उपाधि कहते है। जैसे पोजीशन डिग्री आदि मिलाना ये सब उपाधि है। तो यो यह जीव भ्रम में कल्पनाजाल में बसकर आधि व्याधि और उपाधि से ग्रस्त रहता है।
काल्पनिक मौज से शुद्ध आनन्द का विघात - भैया! शुद्ध आनन्द तो आत्मा के चैतन्यस्वरूप में है, किन्तु विकल्प-जालों की एसी पुरिया पूर ली कि जिससे सुलझ नही पाते है और अपना आनन्द समुद्र जो निज संयोग में सुख की कल्पना करने लगते है। परपदार्थो के सम्पर्क में सुख की कल्पना भले ही मोही करे, किन्तु इसका तो काम पूरा हो नही पाता है । जो पुरूष जिस स्थिति में है उस स्थिति में चैन नही मानता है, क्योकि उससे बड़ी स्थिति पर दृष्टि लगा दी है। कोई हजारपति है। उसकी दृष्टि लखपति पर है तो वर्तमान मे प्राप्त वैभव का भी आनन्द नही ले सकता है। यो धनी हो कोई तो दुःखी है, निर्धन हो तो दुःखी है। किसे सुख कहा जाय? मोहियों ने केवल कल्पना से मौज मान रक्खा है।
विडम्बनाओं का संन्यास - यदि संसार भ्रमण करते हुए भी वास्तविक सुख मिलता होता तो बड़े बड़े तीर्थकर चक्रवर्ती ऐसे महापुरूष इसा वैभव को कभी न छोडते। ये मनुष्य इसी बात पर तो हैरान है कि संचित किया हुआ वैभव उनके साथ नही जाता। कोई पदार्थ इस जीव का बन जाता या मरने पर साथ जाता तो कितना उपद्रव संसार में मच जाता? जब इस जीवन में भी कोई वैभव साथी नही है इतने पर तो इतनी विडम्बनाएँ है, यदि कुछ पैसा इस जीव के साथ जाता होता मरने पर, तब तो कितना अन्याय और कितनी विडम्बना इस संसार में बन जाती? कंजूस लोग तो बड़े दुःखी है, वे इसी कल्पना में मरे जा रहे है कि यह वैभव मेरे साथ न जायगा। बड़े बड़े महापुराण पुरूष इस वैभव को असार जानकर उससे विरक्त हुए थे। केवल एक ज्ञानमात्र निज स्वरूप का ही उन्होने अनुभवन किया था। यदि यह वैभव कुछ भी सारभूत होता तो ये महापुरूषो क्यों इसे त्याग देते? धन वैभव समस्त परपदार्थ है, परपदार्थो मं दृष्टि जाने से ही क्लेश होने लगता है क्योकि किसी भी परपदार्थो को किसी भी रूप परिणमाना यह अपने आप के हाथ की बात नही है, पर मिथ्या श्रद्वा में इस जीव ने यह माना कि जिस पदार्थ को मै जिस तरह राखू उस प्रकार रख सकता हूँ किन्तु बात ऐसी है नही, हो नही सकती, तब क्लेश्ज्ञ ही तो आयगा। इसी कारण