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तो ये महापुरूष इस वैभव को असार दुःख का कारण जानकर सबको त्यागकर दिगम्बर साधु हुए।
विकट संकट और उनका विजय – कल्पनाजाल एक विकट संकट है। जिनके कोई दिल की बीमारी, घबड़ाहट या हार्ट फेल होता है उसका मुख्य कारण पर का ही चिंतन है। कोई विकल्पजाल बनाया, उसमें परेशान हुआ कि ये सब व्याधियां उत्पन्न हो जाती है। वीर पुरूषो ने इन सब विकल्पजालो का परित्याग कर तपश्चरण धारण किया। जो पुरूषार्थ कायर पुरूषो से नही किया जाता वह अलौकिक पुरूषार्थ साधु संतो ने किया। कोई साधु आत्मध्यान में मग्न है उस ही समय काई सिंह या अन्य कोई हिसंक जानवर आ जाय और उनके शरीर को खाने लगे तो वे विकल्प नही करते है। वे तो जानते है कि ऐसे विकल्प मैने अनेक बार किए, जन्म मरण भी अनन्त बार भोगा, पर एक ज्ञान का अनुभव और ज्ञान की स्थिरता में लगना यह काम अब तक नही किया। ज्ञानी पुरूष संसार, शरीर और भोगो से उदासीन रहा करते है, वे अपने आपको ही अपने ज्ञान और आनन्द का कारण मानते है। जो पुरूष यह जानते है कि ये सर्व समागम बाहृा तत्व है। सर्व समागम मिट जाने वले है, ये समागम सदा न रहेगें, ये दुःख के कारण है। कोई चीज भिन्न है उसे अपना मानना यही दुःख का कारण है।
परमार्थ सम्पदा और विपदा - भैया ! यह जीव स्वभाव से सुखी है। इस पर एक भी क्लेश नही है, पर जहाँ परपदार्थ के प्रति विचार बनाया वहाँ क्लेश हो गया। ये पंचेन्द्रिय के विषय भोग ये कदाचित् भी आनन्द के कारण नही हो सकते है। यो तो जैसे दाद और खाज जिसके होता है वह उसको ही खुजाता हुआ सोचता है कि सर्वोत्कुष्ट आनन्द तो यही है। इससे बढ़कर और आनन्द क्या होगा योंकि उसके इतनी ही बुद्वि है पर भोग साधनो के बराबर विपत्ति ही और कुछ नही है। जो ज्ञानी पुरूष अपने ज्ञानस्वरूप को अपने ज्ञान में बसाये हुए है वे निराकुल रहते है। कोई अपराध न करे तो आकुलता नही हो सकती है। जब कोई भी आकुलता होती है तो यह निर्णय करना चाहिए कि हमने ही अपराध किया है यह जगत विपत्तियो से घिरा है। वस्तु स्वरूप के विपरीत जो श्रद्वान रखे उसे चैन नही मिल सकती है। ज्ञाता द्रष्टा रहे तभी आनन्द है। प्रभु का स्वरूप ऐसा ही है इस कारण प्रभु आनन्दमग्न है। सारा विश्व तीन लोक के समस्त पदार्थ उनके ज्ञान में आते है पर वे ज्ञाता द्रष्टा ही रहते है। वे जगत् साक्षी है इस कारण उनको रंच भी क्लेश नहीं होता।
संसार में विपदाओ की प्राकृतिक देन - देखो संसार में हम और आप सब एक विपदा को मिटाने का यत्न करते है कि दूसरी विपदा आ जाती है अर्थात् कल्पना से पदार्थ के किसी भी परिणमन में यह विपदा मानने लगात है। श्री राम भगवान कुछ बचपन में लौकिक नाते से भले ही सुखी रहे है गृहस्थावस्था मे, पर उसके बाद देखो तो सारा जीवन क्लेश ही क्लेश में गुजरा, किन्तु उनमें धैर्य था, विवेक था सो अंतिम स्थिति उनकी उत्तम रही और आत्मध्यानमग्न हुए, निर्वाणपद प्राप्त किया, पर सरसरी निगाह से देखो तो राज्यभिषेक होने को था, यहाँ तक तो खुशी थी, पर आदेश्ज्ञ हुआ कि भरत को राज्य
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