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________________ अध्यात्मयोग - जो पुरूष प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार से मुक्त होकर आत्मा के अनुष्ठान में निष्ठ होते है अर्थात् अध्यात्म में अपने उपयोग को जोड़ते है उनके उससे अलौकिक आनन्द होता है। योगी का अर्थ है जोड़ने वाला। यहाँ हिसाब में भी तो योग शब्द बोलते है। कितना योग हुआ अर्थात् दो को मिलाकर एक रस कर दे इसी के मायने तो योग है। चार और चार मिलाकर कितना योग हुआ? आठ। अब इस आठ में पृथक-पृथक चार नही रहे। वह सब एक रस बनकर एक अष्टक बन गया है। इस प्रकार ज्ञान करने वाला यह उपयोग और जिसका ज्ञान किया जा रहा है ऐसे उपयोग की ही आधारभूत शाश्वत शक्ति इस शक्ति में इस व्यक्ति का योग कर दो। अर्थात् न तो व्यक्ति को अलग बता सकें और न शक्ति को अलग बता सकें, किन्तु एक रस बन जाय इस ही को कहते है अध्यात्मयोग। निज में ही निज के योग की संभवता - भैया! गलत योग नही कर लेना, परपदार्थ में अपने उपयोग को जोड़कर एकमेक करने का गलत हिसाब नही लगाना है। गलत हिसाब लग भी नही सकता है। किसी भी परपदार्थ में अपने उपयोग को जोड़े तो कितना ही कुछ कर डाले, जुड़ ही नही सकता। भले ही कल्पना से मान लो गलत हिसाब को कि मैंने सही किया, पर वहाँ जुड़ ही नही सकता। पर के प्रदेश भिन्न है, पर में है, अपने प्रदेश भिन्न है, अपने में है। इस शक्ति का और इस उपयोग का योग जुड़ सकता है, क्योकि यह भी एक चैतन्मय है और यह अंतस्तत्व भी चैतन्यस्वरूप है। जैसे समुद्र और समुद्र की लहर का समुद्र मे योग हो सकता ह क्योकि लहर भी समुद्ररूप है और समुद्र तो समुद्र ही है, इस ही प्रकार इस उपयोग का इस परमब्रहा में योग हो सकता है, ऐसा योग जिनके होता है। उन योगी पुरूषों के कोई अलौकिक आनन्द उत्पन्न होता है। आत्मकर्तत्व – जब तक दृश्यमान बाहापदार्थ मे किञिचत् मात्र भी ममता रहती है तब तक स्वरूप में लीनता नही हो सकती है, किन्तु जब अध्यात्मयोगी की किसी भी बाहा तत्व में कोई ममता नही रहती तो वह स्वरूप में लीन होता है। यही स्वरूपलीनता परम तत्व की प्राप्ति का कारण है। यह चीज होगी रागद्वेष के अभाव से। रागद्वेष मिटेंगे वस्तुतस्वरूप के यर्थाथ ज्ञान से। इस कारण वस्तुस्वरूप के यथार्थज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। जो अनुभव में उतरे, जो यर्थार्थ ज्ञान है उस ज्ञान का अर्जन करे। वह गुरू कृपा बिना नही हो सकता। यदि साक्षात् गुरू न मिले कभी तो ये ग्रन्थ भी गुरू ही है? क्योकि वे जो बोलतो थे वह सब यहाँ अक्षरो रूप में है। इस प्रकार स्वाध्याय और सत्संग करके अपने ज्ञानार्जन का उद्यम करे, यह ही अपने कल्याण का उपाय है। आनन्दो निर्दहत्युद्व कर्मन्धनमनारतम। न चासौ खिद्यतें योगी बहिर्दःखेष्वचेतन।।48।। 213
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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