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ठहर नही सकता है। किसी भी उपदेश के अध्ययन का फल साक्षात् अज्ञाननिवृति है। यह जीव पहिले अपनाए हुए परवस्तु का त्याग करता है यह भी ज्ञान का फल है। जो चीज ग्रहण के अयोग्य है उसे ग्रहण नही करना है,किन्तु मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहना है, उदासीन रहना है। उसके फल से उत्कृष्ट फल है उदासीनता का। यो इस ग्रन्थ का भली प्रकार अध्ययन करे। भली प्रकार का अर्थ है अपेक्षा लगाकर ।
स्याद्वाद के बिना मन्तव्यो में विरोध - देखिये विडम्बना की बात, जीव सब ज्ञानमय है और एक पुरूष दूसरे की बात का खण्डन करता है। यह कैसी विडम्बना हो गयी है? जब ज्ञानमय दूसरे जीव है, ज्ञानमय हम भी है तो हम दूसरे के तत्वनिर्णय का खण्डन करे, यही तो एक विडम्बना की बात है। यह विडम्बना क्यों बनी? इसने नयका अवलम्बन छोड़ दिया। दूसरे की बात सुनने का धैर्य रक्खो और उस कहने वाले के दिमाग जैसा अपना दिमाग बनावो और उसे सुनो, दूसरे की बात मानो अथवा न मानो, इसके दोनो ही उत्तर है, मानना भी और न मानना भी, लेकिन दूसरे की बात को हम गलत न कह सके। जिस दृष्टि मे मान लिया और अन्य दृष्टि से वह बात नही मानी जा सकती है। जैसे कोई पुरूष किसी पुरूष के बारे में परिचय बताने वाली एक बात कह दें कि यह अमुकका बाप है, हाँ अमुक का बाबा है, यह दृष्टि बनने पर तो विडम्बनापूर्ण वचन नही हुए, यहाँ कोई दृष्टि छोड़ दे, यह साहब तो बाप कह रहे है, वही विवाद हो जायगा। वह पुरूष किसी का पुत्र है, किसी का कोई है। यदि हम अपेक्षा समझतें है तो वहाँ कोई विसम्वाद उत्पन्न न होगा। अपेक्षा त्यागकर तो विडम्बना बनती ही है। ऐसे ही जीव और समस्त पदार्थो के स्वरूप के बारे में जिसने जो कुछ कहा है उनके दिमाग को टटोले, सबकी बात को आप सही मान जायेगे। लेकिन वे सब परस्पर विरुद्ध तो बोल रहे है, इन सबको सही कैसे मान लोगे? अरे भले ही परस्पर विरूद्व बोले लेकिन जिस दृष्टि से जो कहता है उस दृष्टि से उसकी बात जान लेना है, इसमें कोई विडम्बना की बात नही है।
सम्यग्ज्ञान होने पर कर्तव्य - नयो द्वारा वस्तुत्व को जान लेने पर फिर कर्तव्य यह होता है। कि जो ध्रुव तत्व से सम्बद्व दृष्टि है उसे ग्रहण कर लें और अध्रुव तत्वरूप जो निर्णीत है उसे छोड़ दे और अंत मं ध्रुव और अध्रुव दोंनो की कल्पना हटाकर एक परम उदासीन अवस्था प्राप्त करे। यह है आत्महित करने की पद्वति। इस इष्टोपदेश को भली प्रकार विचारकर आत्मज्ञान के बल से सम्मान और अपमान में समतापरिणाम धारण करना, न राग करना, न द्वेष करना और ग्राम बन जंगल किसी भी जगह ठहरते हुए समस्त आग्रहो को छोड़ देना, मूल सत्य के आग्रह के सिवाय अन्य समस्त आग्रहो का परित्याग कर दे, अन्त में यह सत्य सत्यरूप रह जायगा। सत्य का भी आग्रह न रह जायगा। सत्य का भी जब तक आग्रह है तब तक विकल्प है, भेद है, और जब सत्य का भी आग्रह नही रहता किन्तु स्वयं सत्यरूप विकसित हो जाता है वह है आत्मा की उन्नति की एक चरम
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