________________
गुण सब कुछ हाथ में ही गर्भित हो गया, हाथ से बाहर नही हुआ, लेकिन आप यह शंका कर सकेगें कि हाथ न हो तो वह छाया कैसे हो जायगी? बस यही है निमित्त के सद्भाव को बताने का समाधान । यही निमित्त है, निमित्त की उपस्थिति बिना इस उपादेय में इस रूप कार्य न हो सके यह बात युक्त है, पर निमित्तभूत पदार्थ का द्रव्य, गुण, पर्याय, प्रभाव कुछ भी परवस्तु में उपादाय में नही आता ।
परके अकर्तृत्वपर एक जज का दृष्टान्त एक जज साहब थे, वे कोर्ट जा रहे थे, ठीक टाइम से जा रहे थे। रास्ते में एक गधा कीचड़ में फंसा हुआ दिखा। जज साहब से न रहा गया, सो मोटर से उतरकर उसे कीचड़ से निकालने लगे। हसथ के सिपाही लोगो ने मना किया कि हम लोग निकाले देते है आप न निकालो, पर वे नही माने। उस गधे के निकालने में जज साहब कीचड़ से भर गए और उसी हालत में कोर्ट चले गए। वहाँ लोगो ने देखा कि आज जज साहब की बड़ी बुरी हालत है, कोट पैंट आदि में मिट्टी लगी हुई है। साथ के सिपाही लोगो ने उनसे बताया कि आज जज साहब ने एक गधे की कीचड़ में फंसा हुआ देखकर उसके ऊपर दया करके उसे कीचड़ से निकाला है। तो जज साहब बोले कि मैने गधे पर दया नही की, गधे की वेदना को देखकर मेरे हृदय में एक वेदना उत्पन्न हुई, सो उस अपनी ही वेदना को मैनें मिटाया ।
स्वातन्त्र्यसिद्वि मे दृष्टान्तो का उपसंहार ऐसे ही जज की घटना में निमित्तनैमित्तिक सम्बंध था कि वह गधा बच गया । इसी को कहते है निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध। ऐसे ही सभी पदार्थो में निमित्तनैतिक सम्बंध छाया रूप परिणमी । यह छाया निश्चय से चौकी की है, व्यवहार से हाथ की है। यह समस्त प्रकाश निश्चय से इन वस्तुओ का है व्यवहार से लट्टू का है। हम बोल रहे है, आप सब सुन रहे है। लोगो को दिखता है कि महाराज हमको समझाया करते है, लेकिन मै कुछ भी नही समझा पाता हूं, न मुझमें सामर्थ्य हैं कि मैं आपको समझा सकूँ, या आप मेंकोई परिणमन कर दूँ । जैसे अपने भावो के अनुसार अपना हित जानकर अपनी चेष्टा करते है। सुनने आते है, उपयोग देते है और उन वचनों का निमित्त पाकर अपने ज्ञान में कुछ विलास और विकास पैदा करते है, ऐसे ही मैं ही अपने ही मन में, अपने ही विकल्प में विकल्प करता हुआ बैठ जाता हूं, बोलने लगता हूं, और अपनी चेष्टा करता हूं। मै जैसे आप में कुछ नही करता हूं, आप मुझमें कुछ नही करते किन्तु यह प्रमिपादक और प्रतिपाद्यपने का सम्बन्ध तो लोग देख ही रहे है, यह निमित्तनैमित्तिक सम्बंध की बात है।
अन्तःस्वरूप के परिचय से स्वातन्त्र्य का परिज्ञान भैया ! अतःस्वरूप में प्रवेश पाने के बाद वस्तु की स्वतंत्रता विदित होती है। ऐसी स्वतंत्रता विदित होने पर मोह रह नही सकता। कैसे रहेगा मोह? मोह कहते है उसको कि किसी वस्तु को किसी दूसरे की वस्तु मानना। जहाँ स्वतंत्र वस्तु नजर आ रहे है वहाँ सम्बंध कैसे माना जा सकता है, मोह
229