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________________ अवस्था। यह जीव फिर ऐसे ही अनन्त ज्ञानानन्द गुणो से सम्पन्न एक निरूपम अवस्था को प्राप्त कर लेता है। इष्टोपदेश के सम्यक् अध्ययन का फल - इस ग्रन्थ के अध्ययन के फल में बताया है कि अज्ञान निवृत्ति, हेय पदार्थो का त्याग, उपादेय का ग्रहण, फिर परम उदासीन अवस्था- यह क्रमशः होकर अंत में इस निरूपग निर्वाण की अवस्था प्राप्त होती है। साक्षात् फल तो अज्ञान निवृत्त हो गया यह है, साथ ही चूँकि निश्चय और व्यवहारनय से पदार्थो को समझा भी है तो उस ही के फल में बाहा का त्याग करना, ध्रुव निज ब्रह्मास्वरूप में मग्न होकर समस्त रागद्वेष मान अपमान संकल्प विकल्प विकारों को त्याग देना है। अब इसके इस योग साधन के सम्बंध में शत्रु, मित्र, महल, मकान कांच, निन्दा, स्तवन- ये सब समान रूप से अनुभव में आते है। जो पुरूष आत्मा के अनुष्ठान में जागरूक होता है, स्वाधीन, नय पद्वति से निर्णय करके उन सब नयपक्षों को छोड़कर केवल एक ज्ञानस्वरूप में जो अपना उपयोग करता है, वीतराग शुद्ध ज्ञान प्रकाश में मग्न होता हुआ सर्व विकारो से दूर होकर विशुद्व बन जाता है, फिर यह जीव अनन्त ज्ञान जिसके द्वारा समस्त विश्व का ज्ञाता बनता है, अनन्त दर्शन, जिसके द्वारा समस्त अनन्त ज्ञेयो को जानने वाले इस निज आत्मतत्व को दृष्टि में परिपूर्ण ले लेता है। अनन्त आनन्द, जिसके बल में कोई भी आकुलता कभी भी न होगी और अनन्त सामर्थ्य, जिसके कारण यह समस्त विकास एक समान निरन्तर बना रहेगा, ऐसे अनन्त चतुष्टयसम्पन्न स्थिति को भव्य जीव प्राप्त होता है। इष्टोपदेश से सारभूत शिक्षण - इस उपदेश को सुनकर हमें अपने जीवन में शिक्षा लेनी है कि हम अपने को समझें और आत्मधर्म के नाते हम अपने आप में कुछ अलौकिक सत्य कार्य कर जाये, जिससे हमारा यह दुर्लभ नर-जन्म पाना सफल हो। उसकें अर्थ में रागद्वेष निवारक शास्त्रो का अध्ययन करें और सत्संग, गुरूसेवा, स्वाध्याय, ज्ञानाभ्यास इत्यादि उपायो से अपने आत्मतत्व को रागद्वेषो की कलुषतावों से रहित बनाये। यह चर्या हम आपकी उन्नति का प्रधान कारण बनेगी। 231
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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