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________________ जा रही है? इसके उत्तर में संक्षेपतः इतनी बात समझ लो कि ये दान पूजा जो किए जाते है वह धन कमानेके कारण जो पाप होता है, अन्याय होता है अथवा पाप होते हे उनका दोष कम करने के लिए प्रायश्चित स्वरूप ये सब दान आदिक किए जाते है, और फिर कोई मैं त्याग करूँगा, दान करूँगा इस ख्याल से यदि धनका संचय करता है। तो उसका केवल बकवाद मात्र है। जिसके त्याग की बुद्धि है । वह संचय क्यों करना चाहता है? संचय हो जाता है तो विवके में उस संचित धनको अच्छी जगह लगाने के लिए प्रेरणा करता है, पर कोई पुरूष जान जानकर धन उपार्जित करे और यह ख्याल बनाये कि मै अच्छी जगह लगाने के लिए धन कमा रहा हूं तो यह धर्मकी परिपाटी नही है। ऐसा परिणाम निर्मल गृहस्थका नही होता है कि मै दान करने के लिए ही धन कमाऊँ । यदि ऐसा कोई सोचता भी है तो उसमें यश नामकी भी लिप्सा साथ में लगी होती है, फिर उसका त्याग नाम नही रहता है, इस ही बात को अब इस श्लोक में कह रहे है त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पड. केन स्नास्यामीति विलिम्पति । ।16 ।। धनार्जनका उपहास्य बनावटी ध्येय - जों धनहीन मनुष्य दान पूजा आदिकार्यों के ध्येय से अथवा पुण्य - प्राप्ति के ध्येय से या पापोका नाश करूँगा इस ख्याल से धनोपार्जन करता है- सेवा करे, खेती करे, व्यापार करे, इन कार्यो से धनको इकट्ठा करता है वह पुरूष मानो इस प्रकारका कार्य कर रहा है जैसे कोई पुरूष "मैं नहाऊंगा" यह ख्याल करके, यह आशा रखकर कीचड़ लपेटता है। मै नहाऊंगा सो कीचड़ लपेटना चाहिए ऐसा कौन सोचता है? संसार के अधिकाशं जीवो की यह धारणा रहती है कि धनकी प्राप्ति के लिए यदि निन्द्य से निन्द्य भी कार्य करने पड़े तो भी उनको करके धनका संचय कर लें और उस धनसंचय में, उस अन्याय कर लेने में जो पाप लगेंगे उन पापोको धोने के लिए या उसके बदले में धनका दान देकर, देवपूजा करके, गुरुभक्ति करके, सेवा करके, परोपकार करके पुण्य प्राप्त कर लेंगे परन्तु ऐसा ख्याल करना ठीक नही है। इसका कारण यह है कि जो कुमार्ग से धनंसचय करता है वह तो अज्ञानी पुरूष है। दृष्टान्त विवरण सहित अनाड़ी के अविवेक का प्रदर्शन भैया ! जिसको कुछ भी विवके जगा है वह कुमार्गो से धनका सचंय न करेगा। जैसे कोई पुरूष मै नहा लूंगा, मै नहा लूंगा ऐसा अभिप्राय करके शरीर में कीचड़ को लपेटता है तो उसे दुनियाके लोग विवेकी न कहेगे। कीचड लपेटे और नहाये तो उससे क्या लाभ है? ऐसे ही पाप करके धनसंचय करे और वह मनमें यह समझे कि मै इस धनको दान, परोपकार, सेवा आदिके अच्छे कार्यो में खर्च कर दूँगा और करे खोटे मार्ग से धनका संचय, तो वह तो अज्ञान अंधकार से घिरा हुआ है, और वह जो अच्छे कार्यो में लगाने की बात सोच रहा है सो 53
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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