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________________ जीवनसे भी अधिक धन से प्रेम होनेका विवरण – भैया! समयका व्यतीत होना दो बातो का कारण है- एक तो आयु के विनाशका कारण है और दूसरे धनप्राप्तिका कारण है। वर्ष भर व्यतीत हो गया इसके मायने यह है कि एक वर्ष की आयुका क्षय हो गया और तब व्याजकी प्राप्ति हुई । यो कालका व्यतीत होना, समयका गजर जाना दो बातो का कारण है- एक तो आयुके क्षयका कारण है और दूसरे धनकी वृद्विका कारण है। जैसे ही काल गुजरता है तैसे ही तैसे जीवकी आयु कम होती जाती है और वैसे ही व्यापार आदिके साधनोसे धनकी बरबादी होती है। तो धनीलोग अथवा जो धनी अधिक बनना चाहते है वे लोग कालके व्यतीत होने को अच्छा समझते है, तो इससे यह सिद्ध हुआ कि इन धनिक पुरूषो को धन जीवन से भी अधिक प्यारा है। वर्ष भरका समय गुजरनेपर धन तो जरूर मिल जायगा पर यहाँ उसकी आयु भी कम हो जायेगी। ऐसे धनका जो लोभी पुरूष है अथवा धन जिसको प्यारा है और समय गुजरनेकी बाट जोहता है उसका अर्थ यह है कि उसे धन तो प्यारा हुआ, पर जीवन प्यारा नही हुआ। __ लोभसंस्कार - अनादिकाल से इस जीवन पर लोभका संस्कार छाया हुआ है। किया क्या इस जीवने? जिस पर्याय में गया उस पर्याय के शरीर से इसने प्रीति की, लोभ किया, उसे ही आत्मसर्वस्व माना। अनादिकालसे लोभ कषायके ही संस्कार लगे है इसके कारण यह जीव धनको अपने जीवन से भी अधिक प्यारा समझता है। देखो ना समय के गुजरने से आयुका तो विनाश होता है और धन की बढ़वारी हाती है। ऐसी स्थिति में जो पुरूष धनको चाहते है, काल के गुजरनेको चाहते है इसका अर्थ यह है कि उन्हे जीवन की तो परवाह नही है और धनवृद्वि की इच्छा से कालके गुजरनेको हितकारी मानते है। ऐसे ही अन्य कारण भी समझ लो जिससे यह सिद्ध है कि धन सम्पदा के इच्छुक पुरूष धन आदि से उत्पन्न हुए विपदाका कुछ भी विचार नही करते। लोभकषायमें यह ही होता हे। लोभ में विचार होता है तो केवल धनसंचयका और धनसंरक्षणका | मैं आत्मा कैसे सुखी रहूं शुद्ध आनन्द कैसे प्रकट हो, मेरा परमार्थ हित किस कर्तव्य में है, ऐसी कुछ भी अपने ज्ञान विवेकी बात इसे नही रूचती है। कितनी ही विपदाएँ भोगता जाय पर जिसकी धुन लगी हुई है। उसकी सिद्वि होनी चाहिए, इस टेकपर अड़ा है यह मोही। यह सब मोहका ही एक प्रसाद है। धनविषयक जिज्ञासा व समाधान - यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि धनको इतना बुरा क्यो कहा गया है? धनके बिना पुण्य नही किया जा सकता, पात्रदान, देवपूजा, वैयावृत्य, गरीबोका उपकार ये सब धनके बिना कैसे सम्भव है? तब धन पुण्योदयका कारण हुआ ना। इसे निंद्य कैसे कहा? वह धन तो प्रशंसाके योग्य है जिस धनके कारण परोपकार किया जा सकता है। तब यह करना चाहिए कि खूब धन कमावो और अच्छेकार्य में लगावो, पुण्य पैदा करो। धन सम्पदा वैभवको क्यों विपदा कहा जा रहा है, क्यो इतनी निन्दा की 52
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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