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________________ लगाकर योगी पान किया करता था। इसके फलमें अब पूर्ण अभ्यस्त हुआ है। अब ये योगी क्या किया करता है उसके संबंध में जिज्ञासुका प्रश्न है। कर्तृत्वबुद्विका रोग - करना, करना यही तो एक संसारका रोग है। यह जिज्ञासु रोगकी बात पूछ रहा है कि इस समय कौनसा रोग है, अर्थात यह क्या करता है, जगत के जीव करनेके रोग में दुःखी है। सब बीमार है, कौनसी बीमारी लगी है? सबको निरखो किसी भी गाँव नगर शहर में नम्बर 1 के घर से लेकर अंतके नम्बर के घर तक देख आवो, सभी कुछ न कुछ बीमार हो रहे है, कुछ न कुछ करनेका संकल्प बना हुआ ह। ये करनेके आशयकी बीमारीका दुःख भागते जा रहे है। क्या उस ही रोग की बातको यह जिज्ञासु पूछ रहा है? कोई एक रूई धुनने वाला था। वह विदेश किसी कारण गया था। वहां से पानी के जहाजसे आ रहा था। तो उस जहाज में मुसाफिर एक ही कोई था और एक यह स्वंय, किन्तु सारे जहाजमें रूई लदी हुई थी। हजारो मन रूई देखकर उस धुनियाके दिलमें बड़ी चोट पहुंची। हाय यह सारी रूई हमको ही धुननी पड़ेगी। बस उसके सिर दर्द शुरू हो गया, घर पहुंचते –पहेचते तेज बुखार हो गया, कराहने लगा। डाक्टर आए, पर वहां कोई बीमारी हो तो वह ठीक हो। वह तो मानसिक कल्पनाका रोग था। एक चतुर वैद्य आया, उसने पूछा- बाबा जी कहां से तुम बीमार हुए? बोला हम विदेशसे पानीके जहाजसे आ रहे थे, बस वही रास्तेंमे बीमार हो गए। अच्छा उसमें कौन-कौन था? था तो कोई नही (बड़ी गहरी सांस लेकर कहा) बोला - एक ही मुसाफिर था, मगर उसमे हजारो मन रूई लदी हुई थी। उसकी आह भरी आवाज को सुनकर वह सब जान गया। बोला - अरे तुम उस जहाजसे आए, वह तो आगे किसी बंदरगाहपर पहुंचकर आग लग जानेसे जलकर भस्म हो गया। जहाज और रूई सब कुछ खत्म हो गया। इतनी बात सुनते ही वह चंगा हो गया। तो सब करनेके रोग के बीमार है। कर्तृत्वबुद्विके रोगकी चिकित्साकी चर्चा - भैया ! कर्तृत्वबुद्विके रोगसे पैर एक जगह नही थम जाते है, चित्त एक जगह नही लग पाता है, जगत के जीवोमें पक्षपात मच गया है, यह मेरा है, यह गैर है, ये कितनी प्रकारकी बीमारियां उत्पन्न हो गई है। इन सबका कारण कर्तृत्वका आशय है। मैं करता हूं तो यह होता है, मै न करूँ तो कैसे होगा? यह नही विदित है कि यदि हम ने करेगे तो ये पदार्थ अपने परिणमते रहने के द्रव्यत्वको त्याग देंगे क्या? खैर जिज्ञासुको अधिकार है कैसा भी प्रश्न पूछे। उस प्रश्नका उत्तर यहाँ दिया जा रहा है। कि यह योगी तो अपने उपयोगको जोड़ रहा है और कुछ नही कर रहा है। तो जिज्ञासु मानो पुनः पूछता है कि क्या वह योगी अपने बारेमें सुनसान है, कुछ अपने आपका चिन्तन और भान ही नही कर रहा है क्या? उत्तर इसीका दिया गया है पूर्व पादमें कि यह अनुभवमें आने वाला तत्व क्या है, कैसा है, किसका है, कहाँ से आया, कहाँ पर 185
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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