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________________ तो जाति का भेद मिटा दो, कुलका भेद मिटावो, एक मनुष्य-मनुष्य मान लो सबको। इतना तक ही विचार पहुंचता है अथवा इतनी भी उदारता का भाव चित्त में नही आता। अरे इससे अधिक उदारता यह है कि यह मान लो कि हम मनुष्य ही नही है। मैं तो एक चैतन्य तत्व हूं। आज मनुष्य देह में फस गया हूँ,कभी किसी देह में था। मै कहाँ मनुष्य हूं, मनुष्य भव से गुजर रहा हूं। अपने आपको विशुद्व ज्ञानानन्दस्वरूप इस जीव ने नही माना। इसके फल में परिणाम यह निकला कि इस जीव के साथ सारी विडम्बनाएँ साथ-साथ चल रही है, जन्म मरण की संतति बनती चली जा रही है। ज्ञानामृत – भेदविज्ञान ही एक अमृत है। उस अमृत को कैसे पकड़ोगे, अमृत कोई पानी जैसा नही होता अमृत कोई फल जैसा नही होता। अमृत क्या चीज है जिसका पान करने से यह आत्मा अमर हो जाता है? जरा बुद्वि में तो लावो। अमृत का अर्थ क्या है? अ मायने नही, मृत मायने मरे, जो मरे नही सो अमृत है। जो स्वंय कभी मरे नही अर्थात् नष्ट न हो उसे अमृत कहते है। जो कभी नष्ट न हो ऐसी वस्तु मेरे लिए है ज्ञान। ज्ञानस्वभाव कभी नष्ट नही होता। इस अविनाशी ज्ञानस्वभाव को जो लक्ष्य में लेता है अर्थात् इस ज्ञानामृत का पान करता है वह आत्मा अमर हो जाता है। अमर तो है ही यह, पर कल्पना में जो यह आया कि मै मनुष्य हूँ, अब तक जीवित हूँ, अब मर रहा हूं, ऐसी जो बुद्वि आयी उसके कारण संसार में रूलना पड़ रहा है। मोह का माहात्म्य तो देखा - यह जीव विषय-विषरस को तो दौड़ दौड़कर भटक भटककर पीता है और दस ज्ञानामृत का इसने निरादर कर दिया है, उसकी और तो यह देखता भी नही है। जो जो जन्तु पुदगलद्रव्य को अपना मानते है उनके साथ ये पुदगल के सम्बन्ध की विडम्बनाएं चारो गतियों में साथ नही छोड़ती है। पुद्गलो का मुझमें अत्यन्ताभाव - इन पुद्गलो का मुझ में अत्यन्ताभाव है। मेरा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव किसी भी अणु में नही पहुंच सकता है । किसी अणु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मुझ में नहीं आ सकता है। जैसे घर में बसने वाले 10 पुरूषो में परस्पर में एक दूसरे से मन न मिलता हो तो लोग कहते है कि एक घर में रहते हुए भी वे बिल्कुल न्यारे-न्यारे रहते है। वहाँ तो फिर भी क्षेत्र जुदा है, किन्तु यहाँ शरीर है वहाँ ही जीव है, एक क्षेत्रावगाह सम्बंध है, फिर भी जीव का काई अंश इस शरीर में नही जाता, शरीर का कोई अंश इस जीव में नहीं आता। एक क्षेत्रावगाही होकर भी शरीर-शरीर में परणिम रहा है और जीव-जीव में परिणम रहा है। यों सर्वथा भिन्न है ये बाहा समागम, ये आत्मा के न कभी हुए और न कभी कभी हो सकते है, किन्तु मिथ्या आशय जब पड़ा हुआ है, अपने आपके सुख स्वरूप का परिचय नही पाया है तो भेदविज्ञान का विवेक नही हो पाता है। इस जगत में रहकर मौज मानने का काम नही हे। कितनी विडम्बना हम आपके साथ लगी है उस पर दृष्टिपात करे उन विपत्तियों से छूटने का यथार्थ उपाय बनाये। 207
SR No.007871
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala Merath
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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