Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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ओग्य स्वभावोंको धारण नहीं करते हैं उन पदार्थाका किसीको ज्ञान भी नहीं हो पाता है। जैसे घोढेके सींग, कछुएके रोम आदिका । इसी प्रकार आपके मतानुसार उपलभ्यता रूप स्वभावके शब्दसे सर्वथा भिन्न पड़े रहनेपर शब्दका भी कभी ज्ञान नहीं होना चाहिये ।
उक्त दोषके परिहारके लिये उपलभ्यताको भिन्न मानकर भी शब्दके साथ उसका संबंध हो जाने से वह शब्द जानन यान्य हो जाता है, जैसे कि उष्णताके समवायसंबंधसे अग्नि उष्ण है । यदि आप ऐसा मानोगे, तो कहिये कि आपने उपलभ्यताके साथ शब्दका कौनसा संबंध माना है ? बताओ, यदि धर्मधर्मिभाव संबंध है अर्थात् शब्द तो धर्मी है और और उपलभ्यता उसका धर्म है, यह संबंध मानना तो ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा ही मिन्न पदार्थों में धर्मधर्मिभाव नहीं होता है जैसे कि सहापर्वत और विंध्याचलका । तथाच सर्वथा भदपक्षेम पुनः उपलभ्यता और शब्दके धर्मधभिभावसंबंध होने का विरोध है । यदि इस दोषके परिहारके लिये आप भेद, अमेद इन दोनों पक्षोंको स्वीकार करेंगे, जिससे कि इस धर्मधर्मिभावपने का विरोध हो सके ऐसा कहने पर भी तो अभेदपक्षमें जिस अंशसे अमिन उपलभ्यताका उस वायुके द्वारा नाश होगा, उस स्वभावपनेसे तो शब्दका भी नाश हो ही जायेगा, ऐसी दशा में भला शब्द एकांतरूपते नित्य कैसे माना जा सकता है ! यों वह शब्द एकांतरूपसे नित्य नहीं है।
द्वितीयविकल्पे सत्यप्यावारके शब्दस्योपलब्धिप्रसंगस्तदुपलभ्यतायाः प्रतिघाताभावात, तथा च न तद्धिप्रविघाती कश्चिदावारकः कूटस्थस्य युक्तो यतस्तदपनयनमभिव्यक्तिः सिद्धयेत् ।
शब्दसे भिन्न और अभिन्न उपलभ्यताका घायुके द्वारा नाश होता है, इस प्रथम पक्षका खण्डन हो चुका । अब आप मीमांसक दूसरा विकल्प उपलभ्यताके नाश न होमेका मानोगे तो आवरण करनेवाले वायुके होनेपर भी शब्दका ज्ञान सर्वदा होते रहना चाहिये, क्योंकि वायुके द्वारा शब्दको उपलभ्यताका घात तो हुआ नहीं है, भौर उस कारण " शब्दकी बुद्धिको नष्ट करने वाला कोई विशेष वायु कूटस्थपनेसे नित्य हो रहे शब्दका आवारक है ।" यह युक्तिसे सिद्ध नहीं हो सकता है जिससे कि मीमांसकोंके मतमें आवारक वायुको दूर करनारूप शब्दकी अभिव्यक्ति सिद्ध होती अर्थात् शब्दकी अभिव्यक्ति सिद्ध नहीं हो सकती है।
एतेन शब्दस्योपलब्ध्युत्पसिरभिव्यक्तिरिति ब्रुवन् प्रतिक्षितः, तस्यां तदुपलम्यतो. सत्यनुत्पत्योः शदस्योत्पत्यप्रतिपचिप्रसंगात् , न हि शब्दस्योपलब्धेरुत्पनौ तदभिभोपलभ्यतोत्पद्यते, न पुनःशब्द इति ब्रुवाणः स्वस्थः । तस्यास्ततो भेदे सदानुपलभ्यस्वभावतापर्धर्मर्मिभावसंबंघायोगात् । तत्संबंधादप्युपलभ्यत्वासम्भवाद्भेदाभेदोपगमे कथं