Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्भचिन्तामणिः
मानने संस्कार और शब्दके एकपनेका विरोध हुआ जाता है। सर्वथा भेद माननेपर अभेद नहीं मान सकते हो और सर्वथा अभेद माननेपर भेद मानना विरुद्ध है । भेद और और अभेद दोनों धर्म एक नहीं होसक्ते हैं। तुल्यवल विरोध है ।
यदि पुनः कथञ्चिदभिन्नो भिन्नश्च शब्दात्संस्कारसस्य वेनाधीयत इति मतं तदा स्यात्पौरुषेयं तत्वार्थशासनमित्यायातमहेन्मतम् ।
विरोध और विप्रतिषेध दोषको दूर करनेके लिये यदि आप मीमांसक लोक शब्दसे कथञ्चित भिन्न और किसी अपेक्षासे अभिन्न संस्कार का बनानेवालेके व्यापारसे शब्दमे स्थापन करना मानोगे, तब तो तत्वार्थोकी शिक्षा करनेवाले तत्त्वार्थसूत्रमन्थके वर्ण, पद, वाक्यों, का भी कथञ्चित् पुरुषसे बनाया जाना अभेदपक्षमें आपके द्वारा ही सिद्ध होगया यों जैनसिद्धांत आगया । यद्यपि प्रवाह रूपसे ज्ञानरूप ग्रन्थ सर्वदासे चला आया है किंतु इस ज्ञानके अनुसार शब्दयोजना करके ग्रंथ बना देना ग्रंथकारका स्वायत्त कार्य है इस ही कारण वक्ताके शब्दोंको जैनसिद्धांतमें पौरुषेय माना गया है, यह श्रीजिनेन्द्रदेवका कहा हुआ मन्तव्य आपको भी मानना पड़ा।
अनु र नाकारोऽभिव्यक्तिस्तदावारलवाय्वपनयनम् घटाद्याधारकतमोऽपनयनवचिरोभावश्च तदावारकोत्पचिर्न चान्योत्पपिविनाशौ शब्द स्य तिरोभावाविर्भावौ कौटस्थ्यविरोधिनी येन परमतप्रसिद्धिरिति चेत्
यहां फिर मीमांसककी ओरसे यह अपने ऊपर आये हुए दोषोंके निवारण करते हुए आईसके कहे हुए मतके माननेमें शंका है कि हम वर्गों के संस्कारको ही शब्दकी अभिव्यक्ति मानते हैं, वक्ताके व्यापारके पूर्व उस शब्दकी सुनायी पडने प्रतिबंध करनेवाला कारण विशेषतायु माना गया है, उस वायुका दूर हो जाना ही शब्दका संस्कार है, जैसे कि घरमें रखे हुए घटका आवरण करनेवाले अन्धकारका दूर हो जाना ही घटकी अभिव्यक्ति है। तथा शब्दको न सुनने देनेवाले वायुका उत्पन्न हो जाना ही शब्दका तिरोभाव ( वर्तमान होते भी छिप जाना ) है, जब कि भिन्न माने गये वायुकी उत्पत्ति और विनाश ही शब्दके आविर्भाव ( प्रगट होना ) और तिरोभावरूप हैं तो वायुकी उत्पत्ति और नाश होनेसे वायुफा ही परिणामपन सिद्ध हुआ। न्यारी वायुके उत्पाद और नाशसे शब्दकी कूटस्थनित्यताका कुछ भी विरोध नहीं हो सकता है, जिससे कि आप जैनोंकामा सिद्ध माना जाये । अर्थात् हम शब्दको पौरुषेय मानवे नहीं हैं यदि ऐसा कहोगे ?
तर्हि किं कुर्वन्नावारकः शब्दस्य वायुरुपेयते ? न तावत्खरूपं खण्डयन्नित्यैकान्तत्रवि रोधात् । तद्बुद्धि प्रतिनभिति चेत्तत्यविधाते शब्दस्योपलभ्यता प्रतिहन्यते वान वा प्रतिहन्याने चेत्सा शब्दाभिन्ना प्रतिहन्यते न पुनः शह इति प्रलापमात्रम् । ततोऽसौ भिन्नैवेति