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श्रम
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श्रमण सूक्त
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सिया एगइओ ललु विविह पाणमोयण।
भद्दग भद्दग भोच्चा विवण्ण विरसमाहरे।। जाणतु ता इमे समणा आययही अय मुणी।
सतुट्ठो सेवई पत लूहवित्ती सुतोसओ।। पूयणट्ठी जसोकामी माणसम्माणकामए। बहु पसवई पाव मायासल्ल च कुबई।।
(दस ५ (२) - ३३, ३५)
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कदाचित् कोई एक मुनि विविध प्रकार के पान और भोजन पाकर कहीं एकान्त मे बैठ श्रेष्ठ-श्रेष्ठ खा लेता है, विवर्ण और विरस को स्थान पर लाता है।
ये श्रमण मुझे यों जाने कि यह मुनि बडा मोक्षार्थी है, सन्तुष्ट है, प्रान्त (असार) आहार का सेवन करता है, रूक्षवृत्ति और जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला है।
वह पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान-सम्मान की कामना करने वाला मुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और मायाशल्य का आचरण करता है।
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