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श्रमण सूक्त
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३४ इच्चेय छज्जीवणिय सम्मद्दिट्टी सया जए। दुलह लभित्तु सामण्ण कम्मुणा न विराहेज्जासि ।।
(द ४ २८) दुर्लभ श्रमणभाव को प्राप्त कर सम्यकदृष्टि और सतत सावधान श्रमण इस पड्जीवनिका की कर्मणा-मन, वचन और काया से-विराधना न करे।
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३५ असभतो अमुच्छिओ भत्तपाण गवेसए।
(द ५ (१) १ ख, घ) मुनि असभ्रात और अमूर्छित रहता हुआ यथाकाल भक्तपान की गवेषणा करे।
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चरे ‘मदमणुबिग्गो अब्वक्खित्तेण चेयसा।
(द ५ (१) २ ग, घ) मुनि धीमे-धीमे, अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त चित्त से चले।
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