________________
श्रमण सूक्त
१७३ वज्जयति ठियप्पाणो निग्गथा धम्मजीविणो ।
अत धर्मजीवी स्थितात्मा निग्रंथ, नित्याग्र, क्रीत, औद्देशिक, आहत अशन, पान आदि का वर्जन करते हैं।
१७४
मुजतो असणपाणाइ आयारा परिभस्सइ |
(द ६४६ ग, घ )
(द ६५० ग, घ )
जो मुनि गृहस्थ के पात्र में अशन, पान आदि खाता है वह श्रमण के आचार से भ्रष्ट होता है।
१७५
जाइ छन्नति भूयाइ दिट्ठो तत्थ असजमो ।
४२५
(द ६ ५१ ग, घ )
बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और उस जल को डालने मे प्राणियो की हिंसा होती है । अत वहाँ गृहस्थों के बर्तन में, भोजन करने मे, ज्ञानियों ने असंयम देखा है।