Book Title: Shraman Sukt
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati Samsthan

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Page 479
________________ श्रमण सूक्त ३३१ भुजित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविह कट्टु असजम बहु । गइ च गच्छे अणभिज्झिय दुह बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो ।। (द चू १ १४) धर्म से च्युत मनुष्य स्वच्छद मन से भोगो का सेवन कर अनेक असयम का सचय कर असुन्दर दुख जनक अनिष्ट गति मे जाता है। उसे पुन बोधि सुलभ नहीं होती । ३३२ जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ चएज्ज देह न उ धम्मसासण । त तारिस नो पयलेति इदिया उवेतवाया व सुदसण गिरिं ।। (द चू १ १७) जिसकी आत्मा इस प्रकार दृढ होती है कि देह का त्याग कर दूगा पर धर्म-शासन को नहीं छोडूगा उस पुरुष, उस साधु को इन्द्रिया उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को । ४७३

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