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श्रमण सूक्त
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भुजित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविह कट्टु असजम बहु । गइ च गच्छे अणभिज्झिय दुह बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो ।। (द चू १ १४)
धर्म से च्युत मनुष्य स्वच्छद मन से भोगो का सेवन कर अनेक असयम का सचय कर असुन्दर दुख जनक अनिष्ट गति मे जाता है। उसे पुन बोधि सुलभ नहीं होती ।
३३२ जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ
चएज्ज देह न उ धम्मसासण । त तारिस नो पयलेति इदिया उवेतवाया व सुदसण गिरिं ।।
(द चू १ १७)
जिसकी आत्मा इस प्रकार दृढ होती है कि देह का त्याग कर दूगा पर धर्म-शासन को नहीं छोडूगा उस पुरुष, उस साधु को इन्द्रिया उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को ।
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