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श्रमण सूक्त
३४० जया य वदिमो होइ पच्छा होइ अवदिमो।
(द चू १ ३ क, ख) प्रव्रजितकाल मे साधु वदनीय होता है, वही उत्प्रव्रजित होकर अवन्दनीय हो जाता है।
३४१ देवलोगसमाणो उ परियाओ रयाण महेसिण।
(द चू १ १० क, ख) सयम मे रत महर्षियो के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है।
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अरयाण तु महानिरयसारिसो।
(द चू १ १० ग, घ) जो सयम में रत नहीं होते, उनके लिए वही मुनि-जीवन महानरक के समान होता है।
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