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श्रमण सूक्त
३५१
इमे य में दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ ।
(द चू १, सू १ ४)
कष्ट के समय मनुष्य सोचे "यह मेरा परीषह-जनित दुख चिरकाल पर्यंत नहीं रहेगा।"
३५२
दुल्लभे खलु भो ?
गिहीण धम्मे गिहिवासमज्झे वसताण ।
(द चू १, सू १ ८)
अहो ' गृहवास मे रहते हुए गृहियो के लिए धर्म का स्पर्श निश्चय ही दुर्लभ है।
३५३ सोवक्केसे गिहवासे
निरुवक्केसे परियाए ।
(द चू १, सू १ ११)
गृहवास क्लेश-सहित है और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित ।
३५४ बधे गिहवासे
मोक्खे परियाए ।
(द चू १, सू १ १२ )
गृहवास बन्धन है और मुनि-पर्याय मोक्ष ।
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